Thursday 25 August 2011

माँ

'माँ'
फिर से चाहती हूँ
तेरे आँचल की छाँव
तेरा प्यार भरा स्पर्श..

तुम ही तो हो
'जो'
बिन बोले ही भांप जाती थी
'मेरे'
अंतर के सलवटों को ...

कई बार छुपा जाती थी 'मैं'
अपने बीमार होने की बात ,
'तब'
मेरी उतरी शक्ल देख कर जान जाती थी
मेरे बीमार होने की बात ...

आज तो कहने पर भी
कोई यकीन नहीं करता है ..
'तुम..?' और बीमार
कह कर हर सदस्य हंस पड़ता है ...

'माँ'
कहाँ हो 'तुम'
फिर से चाहती हूँ
तेरे आँचल की छाँव....

No comments:

Post a Comment

साथ

उन दिनों जब सबसे ज्यादा जरूरत थी मुझे तुम्हारी तुमने ये कहते हुए हाथ छोड़ दिया कि तुम एक कुशल तैराक हो डूबना तुम्हारी फितरत में नहीं, का...