Thursday 27 September 2012

हिरोइन नही थी वो

हिरोइन नहीं थी वो,
और न ही किसी मॉडल एजेंसी की मॉडल
फिर भी,
जाने कैसा आकर्षण था उसमे
जो भी देखता, बस, देखता रह जाता,
उसका सांवला सा चेहरा,
मनमोहक मुस्कान,
और आँखें..?
आँखें तो जैसे के बस,
अभी बोल पड़ेंगी,
उम्र 17 साल
गंभीरता का आवरण ओढ़े,
जिए जा रही थी..
इक अजीब सा दर्द झलकता था,
उसकी आँखों से,
खामोश रहती थी वो,
किसी को अपना राजदार
जो नहीं बनाया था उसने,
फिर मैं मिली उससे,
उसकी राजदार,
उसकी सहेली बनकर,
'उसकी कहानी '
जैसे,
जिंदगी को कफ़न पहना दिया गया हो,
अपने रिश्तेदार की शोषण की शिकार वो,
जिन्दा लोगों में उसकी गिनती ही कहाँ होती थी,
वो निर्बाध बोलती रही,
और मेरी आँखे निर्बाध बरसती...
'एक दिन'
लापता हो गयी वो,
कोई कहता, 'भाग गयी होगी',
कोई कहता, ' उठा ले गयी होगी ,
जितने मुंह , उतनी बातें,
आज अचानक उसे रैम्प पर चलता देख,
हतप्रभ रह गयी मैं,
जिंदगी ने कहाँ से कहाँ पंहुचा दिया उसे,
मैं फिर चल पड़ी,
बनने उसकी राजदार,
इतनी यंत्रणा, इतनी पीड़ा,
कैसे मुस्कुराती है वो,
सब मन में समेट  कर,
उसके फैक्ट्री के मालिक ने,
दुराचार किया था उसके साथ,
विरोध करने पर चोरी का इलज़ाम लगा,
जेल भेज दिया,
पर रक्षक के भेष में छुपे,
वो भेड़िये भी टूट पड़े  उस पर,
उसका रोना, गिडगिडाना ,
सब ठहाकों की शोर में दब कर रह गया,
तब  ठान लिया उसने,
अब नहीं  रोएगी वो,
अपनी रोंदी हुई मुस्कान,
मसला हुआ जिस्म लेकर,
यहीं इसी दुनिया में रहेगी वो,
जियेगी, भरपूर जियेगी,
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और आज
वो सचमुच की हिरोइन है।



Wednesday 26 September 2012

औरतें

एक औरत,
जब लांघती है,
घर की देहरी,
चाहे सपनों के लिए,
चाहे अपनों के लिए,
हज़ार हिदायतें,
तमाम वर्जनाएं
बांध दी जाती हैं,
पल्लू से उसके,
गलत तो नहीं होता है ये,
बाहर की दुनिया,
वहां के लोग,
उफ्फ!!
ये जिस्म भेदती नजरें,
लपलपाती जीभ,
छूने को लपकते हाथ,
बदचलनी का तमगा,
आसानी से उपलब्ध का ठप्पा,
मुफ्त में
कितनी ही उपमाएं मिल जाती है।.
जैसे की बस,
देहरी लांघती औरत,
अपनी इज्ज़त भी वही देहरी पर
टांग आई हो।..

Monday 24 September 2012

Gazal


इश्क की रात मैं. घटा बन कर रहू
मैं तो खुशबू हूँ, हवा बन कर रहूँ, 

चाँद के इश्क में, जल रही चांदनी, 
अपने परवाने की, शमा बन कर रहूँ, 

है तमन्ना यही, बस यही ख्वाब है.. 
उसके होठों पे मैं, दुआ बन कर रहूँ, 

तेरी रुसवाई का, ये सिला अब मिले, 
इस ज़माने में मैं, सजा बन कर रहूँ, 

इश्क की राह पर, वो कदम जब रखें, 
उनकी नस - नस में मैं, वफ़ा बन कर रहूँ.... !!अनु!! 

Tuesday 18 September 2012

राजू

राजू नाम था उसका, प्यारा, मासूम सा। कई जगह से फट चुके, कई जगह से पैबंद लगे कपडे पहन, चला जा रहा था, अपनी ही धुन में गुनगुनाता हुआ। उसके कदम 'माँ वैष्णो ढाबा' के पास रुक गए। 'आ गया तू' सुनते ही उसका गुनगुनाना बंद हो गया। 'एक तो देर से आया, उपर से गाना गा रहा है.. चल, जुट जा काम पर'... कहते हुए ढ़ाबे के मालिक ने एक चपत रसीद दी उसे। आँखों में आंसू भर वो जुट गया काम पर। 6 जनों का परिवार था उसका। दो भाई, दो बहन, विधवा माँ, और खुद वो। सबके भरण पोषण की जिम्मेदारी थी उसपर...
 
       यही थी उसकी दिनचर्या, सुबह पांच बजे से लेकर रात के 10 बजे तक ढाबे में रहता था वो। रोज़ समय से आने वाला राजू, अगर कभी लेट हो जाये तो ऐसे स्वागत होता था उसका। यूँ तो उसे ढाबे में तीनो टाइम का खाना मिल जाता था, लेकिन कभी कभी खाना कम पड़ जाने पर किसी किसी टाइम भूखा भी रहना पड़ता था।
  उस रोज़ भी यही हुआ था, दोपहर में खाना ख़त्म हो जाने की वजह से उसे खाना नहीं मिला। हालाँकि, उसे भूख बहुत जोरों की लगी थी। किसी तरह उसने पानी पी कर, अपनी क्षुधा शांत की। रात के खाने के इंतज़ार में, वो ख़ुशी ख़ुशी काम करता रहा.. अचानक उसकी नजर दरवाजे पर पड़ी। दो ग्राहक चले आ रहे थे। 'चल बे, दो फुल  थाली ले कर आ'.. वो चुपचाप खाना लाने चला गया। रसोई में पहुँच कर उसने देखा की खाना बहुत कम बचा है। शायद इन ग्राहकों को देने में ही ख़त्म हो जायेगा। भूख के मारे उसके पेट में मरोड़े उठ रही थी। अब उससे रहा नहीं गया, उसने रसोइये की नजर बचा कर दो रोटी अपने कपड़ों में छुपा ली। सब काम निपट जाने पर उसने थोडा नमक लिया और एक कोने में बैठ कर खाने लगा। तभी किसी काम से ढाबे का मालिक अन्दर आया, राजू पर नजर पड़ते ही वो बौखला गया। 'साले, चोर कहीं के, रोटी चुरा कर खा रहा है, अभी बुलाता हूँ पुलिस को'... राजू, रोता रहा, गिड़गिडाता रहा, लेकिन ढाबे वाले का दिल नहीं पसीजा।
 
       उस दो रोटी को चुराने की वजह से राजू पर केस चला, और उसे सजा के तौर पर बाल सुधार गृह भेज दिया गया। राजू के आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उसे बस अपनी माँ और भाई बहनों की चिंता लगी थी। एक दिन जेलर ने उसे रोते हुए देखा। बहुत प्यार से उसके सर पर हाथ फेर कर  उन्होंने उसके रोने का कारण  पूछा। राजू ने रोते रोते सारा हाल कह सुनाया। जेलर को राजू पर बहुत दया आई, उसने जेल में ही राजू के पढना का इन्तेजाम कर दिया। एक दिन राजू की माँ आई उससे मिलने। वो माँ के गले लग खूब रोया, "माँ , माँ मुझे माफ़ कर दो, मेरी वजह से तुम सब को कितने दुःख उठाने पड़ रहे हैं".. माँ ने राजू को गले लगा लिया, उसके आंसू पोछते हुए बोली, "बेटा, ये जो जेलर साहब है न, बहुत अच्छे हैं, उन्होंने मुझे सिलाई मशीन दी है, तुम चिंता मत करो, हमारी रोजी रोटी बहुत अच्छे से चल रही है, अब तो तुम्हारे भाई बहन स्कूल भी जाने लगे हैं".. सुन कर राजू एक बार फिर जोर से रो  पड़ा, लेकिन इस बार उनकी आँखों में आंसू दुःख के नहीं बल्कि ख़ुशी के थे। उसने जेलर साहब के पैर छूने चाहे, तो उन्होंने उसे गले से लगा लिया, "मैंने अपनी तरफ से कुछ नहीं किया, ये तुम जो दिन रात मेहनत कर के दौरी बनाते हो न, उन्हें ही बेच कर मैंने ये सब किया है".
 
      दिन गुजरने लगे... राजू बड़ा हो गया।. उसने जेल से ही बी0 ए0 कर लिया.. कभी  सपने में भी नहीं सोचा था उसने कि  अपने पेट की आग बुझाने की इतनी बड़ी सजा मिलेगी उसे।. फिर एक दिन वो भी आया। जब राजू की सजा पूरी हो गयी और वो रिहा हो गया।

     तक़रीबन दो साल के बाद राजू फिर उसी जेल  की चारदीवारी के बीच नजर आया। लेकिन इस बार उसके बदन पर कैदी की नहीं बल्कि सुपरिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस की वर्दी थी।..

 ( काश की हर राजू को ऐसा हो कोई जेलर मिल जाये। तो उसकी जिंदगी बन जाये।)
  

Thursday 13 September 2012

स्त्री देह

'देह'
स्त्री की,
जैसे हो, कोई खिलौना,
पता नहीं, 'कब' 'किसका'
मन मचल पड़े,
'माँ' 'माँ' यही खिलौना चाहिए मुझे,
मेरे मन को भा गया।.

तो क्या हुआ ?
गर, किसी और का है,
मुझे खेलना ही तो है,
नहीं चाहिए,
मुझे कोई दूसरा खिलौना,
'यही चाहिए, तो यही चाहिए' ...

एक दिन मिलता है, वही खिलौना,
रौंदा हुआ, टुटा हुआ,
लोग अनजान, 'कब हुआ' किसने किया'?
हजारों हाथ आगे बढे, लाखो आवाज़ गूंज उठे,

'तुम कदम उठाओ, हम तुम्हारे साथ हैं,
तुम्हारी इक आवाज़ में, हमारी भी आवाज़ है'

पर उन हजारों हाथों में,
कोई एक भी हाथ नहीं था, 
'उसके सिन्दूर का'
कोई एक भी आवाज़ नहीं थी,
उसके प्यार की,
कोई एक भी कदम नहीं था,
उसके साथ चलने के लिए,
'जीवनभर'

(यही है ....इस समाज का सच, बलात्कार से पीड़ित स्त्री से सहानुभूति तो सब रखते हैं, लेकिन उसका हाथ थामने, कोई आगे नहीं आता)


Saturday 1 September 2012

बीते हुए दिन

तारीखें बदलती रहीं,
दिन, महीने, साल, बीतते रहे,
पर तुम
'कभी नहीं बन पाए'
'मेरे बीते हुए दिन',
हमेशा की तरह, आज भी
हाथों में हैं,
तुम्हारा हाथ,
आज भी ताज़ा है,
माथे पर अंकित तुम्हारा प्यार,

ऋतुएँ, आती जाती रहीं,
परन्तु,
मेरे मन का ऋतु तटस्थ ही रहा,
बिना कोई बदलाव लिए,
उम्र के इस मोड़ पर
जब इंसान सपने देखना बंद कर देता है,
मेरी पलकों में,
ख्वाब के सितारे, टिमटिमाते रहते हैं,
उम्मीद की उर्जा के साथ,

'तुम'
हमेशा  ही मेरा आज ही रहे'
"बीता हुआ कल भी नहीं, आने वाला पल भी नहीं'...

साथ

उन दिनों जब सबसे ज्यादा जरूरत थी मुझे तुम्हारी तुमने ये कहते हुए हाथ छोड़ दिया कि तुम एक कुशल तैराक हो डूबना तुम्हारी फितरत में नहीं, का...