'दहशत'
'जिस्म' सौंपती है,
'आत्मा' नहीं
'औरत'
जब तक रही
'परदे' में,
पूजी गयी,
सराही गयी,
'परन्तु'
'देहरी' लाँघते ही,
'बाजारू' हो गयी
कुछ 'औरतें'
पैदा होते वक़्त,
अपनी तक़दीर में
लिखवा कर लाती हैं,
रात की 'कालिख़',
कुछ टूटे सपने,
'आँसूं', 'अकेलापन',
'और' फिर
तमाम उम्र,
कलेजे से लगाये फिरती हैं,
इक 'आस'
'चाँद'
तुम पर
लगा 'ग्रहण'
ख़त्म हो जाता है,
कुछ 'मिनटों',
कुछ 'घण्टों', के बाद,
'परन्तु'
'स्त्री' के माथे का 'ग्रहण'
ख़त्म नहीं होता,
'उम्र भर' !!अनुश्री!!
आज शाम
डूबते सूरज का हाथ थाम,
मांग ही लिया मैंने
अपनी किस्मत के लिए
थोड़ी से रोशनी,
जो वो बरसों से
चाँद को देता आ रहा है,
फ़क़त इतना ही कहा उसने,
'तुम्हारी' किस्मत लिखते वक़्त
'उजाला' लिखना
भूल गया था 'वो' !!अनुश्री!!
'इन दिनों'
आसमान का सूनापन,
उतर आया है,
'आँखों' में,
'चुप्पियों' ने
आस - पास
डाल रखा है 'डेरा' !
तुझमे सौंधापन मैं भर दूँ,
तुझमे घुल - घुल जाऊँ,
बनके बरसूँ प्रीत पिया जी,
आ तोहे अंग लगाऊँ
अस्मत जो लुटी
तो 'बेहया'
मर्जी से बिकी
तो 'वेश्या'
'स्त्री' का नसीब,
सलीब, सिर्फ सलीब
'पुरुष'
माफ़ कर दिए
जाते हैं,
'परस्त्रीगमन' के
बाद भी,
'स्त्रियाँ'
'परपुरुष' से नाम
जुड़ने के साथ ही,
साबित कर
दी जाती हैं,
'चरित्रहीन' !!अनुश्री!!
'स्त्री'
जब लाँघती है 'देहरी'
अपनों की खातिर,
या
सपनों की खातिर,
उस पर लगा दिया जाता है,
'इजी अवेलेबल'
का ठप्पा,
जैसे कि 'बस'
देहरी लाँघती 'स्त्री'
अपनी 'अस्मत' भी
वहीँ देहरी पर,
टाँग आई हो !!अनुश्री!!
'जिस्म' सौंपती है,
'आत्मा' नहीं
'औरत'
जब तक रही
'परदे' में,
पूजी गयी,
सराही गयी,
'परन्तु'
'देहरी' लाँघते ही,
'बाजारू' हो गयी
कुछ 'औरतें'
पैदा होते वक़्त,
अपनी तक़दीर में
लिखवा कर लाती हैं,
रात की 'कालिख़',
कुछ टूटे सपने,
'आँसूं', 'अकेलापन',
'और' फिर
तमाम उम्र,
कलेजे से लगाये फिरती हैं,
इक 'आस'
'चाँद'
तुम पर
लगा 'ग्रहण'
ख़त्म हो जाता है,
कुछ 'मिनटों',
कुछ 'घण्टों', के बाद,
'परन्तु'
'स्त्री' के माथे का 'ग्रहण'
ख़त्म नहीं होता,
'उम्र भर' !!अनुश्री!!
आज शाम
डूबते सूरज का हाथ थाम,
मांग ही लिया मैंने
अपनी किस्मत के लिए
थोड़ी से रोशनी,
जो वो बरसों से
चाँद को देता आ रहा है,
फ़क़त इतना ही कहा उसने,
'तुम्हारी' किस्मत लिखते वक़्त
'उजाला' लिखना
भूल गया था 'वो' !!अनुश्री!!
'इन दिनों'
आसमान का सूनापन,
उतर आया है,
'आँखों' में,
'चुप्पियों' ने
आस - पास
डाल रखा है 'डेरा' !
तुझमे सौंधापन मैं भर दूँ,
तुझमे घुल - घुल जाऊँ,
बनके बरसूँ प्रीत पिया जी,
आ तोहे अंग लगाऊँ
अस्मत जो लुटी
तो 'बेहया'
मर्जी से बिकी
तो 'वेश्या'
'स्त्री' का नसीब,
सलीब, सिर्फ सलीब
'पुरुष'
माफ़ कर दिए
जाते हैं,
'परस्त्रीगमन' के
बाद भी,
'स्त्रियाँ'
'परपुरुष' से नाम
जुड़ने के साथ ही,
साबित कर
दी जाती हैं,
'चरित्रहीन' !!अनुश्री!!
'स्त्री'
जब लाँघती है 'देहरी'
अपनों की खातिर,
या
सपनों की खातिर,
उस पर लगा दिया जाता है,
'इजी अवेलेबल'
का ठप्पा,
जैसे कि 'बस'
देहरी लाँघती 'स्त्री'
अपनी 'अस्मत' भी
वहीँ देहरी पर,
टाँग आई हो !!अनुश्री!!