Wednesday 27 November 2013

रंगमंच

'दुआ है',
तुम्हारी
भावनाओं के रंगमंच
सदा ही प्रेम को
अभिनीत करते रहें,
वहाँ आंसुओं का कोई
स्थान न हो।
तुम्हारे शब्द अब
'अभिनय' सीख गए हैं,
उन्हें अदाकारी भी आ गयी है,
वो 'झूमने' लगे हैं'
'मुस्कुराने' लगे हैं,
'खिलखिलाने' लगे हैं।
परन्तु
तुम चाह  कर भी
मेरी स्मृतियों को
खुद से अलग नहीं कर सकते।
मेरा 'प्रेम' तुम्हारी
हर धड़कन,
हर सांस में शामिल है,
मेरा वजूद तुममे
इस कदर रच बस गया है कि
'तुम', 'तुम' न होकर
'मैं' बन गए हो।
और 'मैं' , 'मैं' इस
जीवनरूपी रंगमंच पर
हो कर भी नहीं होती,
मेरे मानसपटल से तुम्हारा
प्रतिबिम्ब ओझल ही नहीं  होता।
किसी और ही दुनिया में
विचरती हूँ मैं,
जहाँ सिर्फ मैं होती हूँ,
जहाँ सिर्फ तुम होते हो।
तुम्हारे शब्दों में सदा - सदा के लिए
समाहित होना चाहती हूँ मैं,
चाहती हूँ
'अपने अस्तित्व को खोकर,
पूर्णता की प्राप्ति'। 

Tuesday 26 November 2013

एक अधूरे फ़साने का पूरा अंत

एक अधूरे फ़साने का पूरा अंत -१
दृश्य - १
 उसकी नजरें चारों ओर कुछ ढूंढ रही थी, 'नहीं' उसे शायद किसी का इंतजार था । आज उसने वादा किया था उससे पहाड़ी पर मिलने का और कहा था कि वो शाम ढलने से पहले उसे आ कर ले जायेगा और हमेशा के लिए उसे अपना  लेगा।  'वो' सुबह से पहाड़ी पर खड़ी है, सुबह से दोपहर हुई, दोपहर से शाम और 'अब' तो रात ने अपना दामन फैलाना शुरू कर दिया  है।  पर उसे यकीं है, 'वो' अपना वादा नहीं तोड़ सकता, 'वो' आएगा, जरुर आएगा।
दृश्य - २ 
'वो' चलने से पहले अपने माता पिता को सारी बात बता कर उनका आशीर्वाद लेने गया।  उन्होंने कहा ' अगर वो इस घर में आयी तो हमारा मरा मुँह देखोगे', उसके उठे हुए कदम जहाँ के तहाँ रुक गए।  'वो' जानता था, 'वो' टूटती साँस तक उसका इन्तजार करेगी।  'वो' अपनी बेबसी पर फफक कर रो पड़ा।

दृश्य - ३
रात बहुत गहरी हो चली थी, चारों ओर बस पेड़ों की सनसनाहट, हवा की  सायं सायं और जानवरों कि आवाज़ों के सिवा कुछ भी न था।  उसकी आस भी अब जवाब देने लगी थी।  'वो' उठी, शायद लौटने के लिए।  लेकिन 'नहीं' उसके कदम उस गहरी खाई की ओर बढ़ चले।  'और' एक चीख के साथ सब शांत हो गया।

(एक अधूरे फ़साने का पूरा अंत -१ ) 

एक अधूरे फ़साने का पूरा अंत -2
'वो' चला गया, उसकी आँखें तब तक उसका पीछा करती रहीं, जब तक  ओझल नही हो गया।  पलकों पर ठहरे आँसूं छलक ही पड़े, इतना आसान नहीं था, मन  को समझा लेना।  क्यूँ नहीं रोक पायी 'उसे' , 'उफ़' ये मर्यादाओं, बंधनों, उम्मीदों की ऊँची ऊँची लहरें, उसे पार जाने ही नहीं दे रही थी, और 'वो' था कि बस आँखों से ओझल होता चला जा रहा था।  शायद चाह कर भी न चाहना इसे ही कहते हैं।  एक ब्याहता को चाह लेना जितना आसान था, उतना ही मुश्किल था, उसका साथ निभाना।  'वो' समझ गया था कि 'उसके' अपने रास्ते हैं 'वो' उन रास्तों पर 'उसके' साथ नहीं चल सकता।  इसलिए छोड़ गया 'वो' , 'उसे' उसकी ही ख़ुशी के लिए।  'और' अपने हिस्से लिखवा लिया, सिर्फ 'ग़म', 'आँसू' और 'तन्हाई' ।


साथ

उन दिनों जब सबसे ज्यादा जरूरत थी मुझे तुम्हारी तुमने ये कहते हुए हाथ छोड़ दिया कि तुम एक कुशल तैराक हो डूबना तुम्हारी फितरत में नहीं, का...