Thursday 28 May 2015

झील

'प्रेम'
में होना,
जैसे झील हो जाना,
ऊपर से सब शान्त
और भीतर कोलाहल,
लेकिन मैं 'प्रेम' में हो कर भी
झील नहीं बनती
समेट लेती हूँ ,
अपने मन की तमाम
हलचलों को,
ओढ़ लेती हूँ 'चुप' ,
वो 'चुप्पी' मुझमे रच देती है,
इक नयी 'आकाशगंगा',
और मैं उस 'आकाशगंगा' में
गढ़ लेती हूँ इक नया 'संसार',
इस धरातल से परे,
मेरा अपना धरातल,
मेरी अपनी दुनिया,
जहाँ कोई नहीं होता,
सिवा 'मेरे' और
'मेरे अहसास' के !!अनुश्री!!

'चाँद'

'चाँद'
सच बताना,
बूढ़े बरगद के नीचे बैठे,
उस जादुगर से
तुमने भी सीख ली है न
'सम्मोहन विद्या' ,
हर सुबह कसम लेती हूँ,
आज तुम्हें निहारना ही नहीं है,
तुमसे बात ही नहीं करनी,
लेकिन शाम ढलते-ढलते,
स्वयं ही तोड़ देती हूँ कसम,
और तुम्हारे संग मिल कर
'मैं' भी हो जाती हूँ 'तुम'
'चाँद'
तुम ये जादुगरी
छोड़ क्यु नहीं  देते ? !!अनुश्री!!

Thursday 21 May 2015

तुम्हारे लिए

मैंने जिंदगी में,
सिर्फ दो ही  रंग जाने थे,
'स्याह' और 'सफ़ेद'
तुमने बताया कि जिन्दगी
'इंद्रधनुषी' होती है,
लाल, हरे, नीले, पीले,
कई चटख रंगों से भरपूर,
तुमने बताया कि
'बारिशें',
रंग धुलती नहीं बल्कि
अपने सौंधेपन की खुशबू
से रंग जाती हैं 'मन'
'तुम' वापस ले आये मुझमें,
वो अल्हड सी हँसी,
वो मादकता, वो सपने,
हालाँकि हम हर जगह
एक 'मन' नहीं रहे,
मुझे हर मुलाकात पर
तुम्हारे लिए,
गिफ्ट्स या फूल ले जाना पसन्द था,
मुझे पसन्द था तुम्हारे मुँह से
'आई लव यू' सुनना,
और तुम्हें ये सब फॉर्मल लगता था,
तुम चाहते थे, मैं तुम्हारी
आँखों से समझ जाऊँ 'सब',
हाँ, एक जगह दोनों एक ही जैसे थे,
हम दोनों ही 'चुप्पा' थे,
कम से कम बातों में
अपनी बात कह देने का हुनर रखते थे,
यहाँ तक कि लिखते वक़्त भी,
आधी बात के बाद,
डॉट - डॉट लगा कर छोड़ देना,
हम दोनों, एक ही दर्द जी रहे थे,
दोनों ही जानते थे,
हम समझ लेंगे, एक -दूजे
की अनकही,
जानती हूँ, 'तुम' सपना हो,
मेरा पूरा आकाश,
जो मेरा हो कर भी मेरा नहीं है,
लेकिन इन सब के बावजूद भी,
मैं इसी सपने में, अपनी पूरी जिंदगी,
जीना चाहती हूँ,
और चाहती हूँ, इसी सपने के साथ
विदा हो जाऊँ
'एक दिन' !!अनुश्री!!  

Wednesday 6 May 2015

उत्सव



'आज'
प्रथम बार
'प्रेयसी' के गालों ने
जाना था,
हर्ष के आँसुओं का
स्वाद,
हर्ष के अतिरेक से
उसके होंठ कँपकपा रहे थे,
परन्तु, आँखे बोल दे रहीं थी,
हृदय का सच,
आह! जैसे कोई वर्षों की
तपस्या फलीभूत हो गयी हो,
प्रेयसी का तन - मन
तरंगित हो रहा था,
उसके कदम नृत्य
करने को व्याकुल,
'प्रेयस' का लौट आना
किसी 'उत्सव' से कम नहीं था
उसके लिए !!अनुश्री!!

Monday 4 May 2015

'तृप्ता'

इन दिनों,
व्याकुल है, 'प्रेयस'
की 'तृप्ता',
बदहवास सी तलाशती है 'उसे'
क्षितिज के उस पार तक,
आकाशगंगा के विस्तार तक,
स्वयं को घोषित करती है
'अपराधिनी'
'अभिशप्त' वो,
इस विरह वेदना को,
अंगीकार करती है,
सजा के रूप में,
अपने प्रेयस पर कोई
दोषारोपण नहीं करती,
स्वीकारती है,
नियति के लिखे को,
लेकिन 'हाँ',
प्रतीक्षरत रहेंगी 'आँखें,
पल, दिन, साल, सदी तक,
वो जानती है,
'प्रेयस' लौटेगा,
जरूर लौटेगा !!अनुश्री!!

समन्दर 'और' नदी

समन्दर ने कहा,
'नदी, ओ नदी,'
'मुझे प्रेम है तुमसे,
आओ, समाहित हो जाओ मुझमें',
'नदी', जो बरसों से समन्दर के
प्रेम में थी,
इस आमंत्रण से प्रसन्न हो,
पूर्ण वेग से दौड़ पड़ी,
समन्दर के आगोश में समा जाने को,
अपने अन्जाम से 'बेखबर'
समन्दर तो समन्दर ठहरा,
उसमें समा कर
'नदी', नदी रह ही कहाँ जाती है,
समन्दर का हो जाने की चाहत में,
खो देती है,
अपना अस्तित्व,
अपनी पहचान,
'और' समन्दर,
एक नदी को स्वयम में समाहित कर,
तलाशने लगता है
'दूसरी नदी' !!

चाँद

इक रात,
चाँद ने कहा,
'सुनो प्रेयसी'
मैं सौंपना चाहता हूँ तुम्हें,
अपने माथे का दाग,
अपनी कालिमा 'और'
जीना चाहता हूँ
'शफ़्फ़ाफ़'
प्रेयसी जानती थी,
'चाँद' छलिया है,
सुबह के सूरज के साथ ही,
छोड़ जायेगा साथ,
लेकिन 'वो' चाँद के प्रेम में थी,
उसने कुबूल कर लिया,
'चाँद' का नज़राना,
चाँद ने टांक दिया,
अपने माथे का 'दाग'
उसके माथे पर,
'और फिर'
'दोनों' कभी नहीं मिले !!

'तुम्हें'

'तुम्हें' सुनते वक़्त,
'तुमसे' कहते वक़्त
एक और 'मन' होता है,
'मुझमे'
कहता है 'सब'
जो मेरे होंठ नहीं कह पाते,
सुनता है 'सब'
जो 'तुम' नहीं कहते !!

'खत'

'तुम्हारे'
दिल के पते पर,
भेजा है इक 'खत'
जिसमें लिखी है,
'उदासियाँ'
'बेचैनियाँ'
'तुम'
'मैं'
और ये भी
कि
'खत' मिलते ही
'लौट' आना !!

साथ

उन दिनों जब सबसे ज्यादा जरूरत थी मुझे तुम्हारी तुमने ये कहते हुए हाथ छोड़ दिया कि तुम एक कुशल तैराक हो डूबना तुम्हारी फितरत में नहीं, का...