Saturday, 29 December 2012

'दामिनी'



'दामिनी'
'तुम' चली गयी,
जाना ही था तुम्हे,
रुक भी जाती तो क्या?
कहाँ जी पाती 'तुम'
अपनी जिंदगी 'फिर से' ,
कहाँ से लाती जीने की
वही चाह,
वही उमंग,
और सच कहूँ न ,
तो तुम्हारी मौत का मातम मनाता,
रोता पीटता ये समाज ही
तुम्हे जीने नहीं देता,
हर औरत के लिए तुम
'बेहया'
से ज्यादा कुछ नहीं होती,
और मर्दों का कहना ही क्या
'उन्हें तो एक नया मसाला मिल जाता,
जिस पर वो रिसर्च करते'
इससे ज्यादा कुछ भी नहीं होना था तुम्हारा,
तुम्हारा मुस्कुराना, हँसना ,
खिलखिलाना सब
खटकता लोगों को,
तब यही लोग तुम्हे
'बदचलन' का तमगा देते,
कहाँ निकल पाती
'तुम'
अपने जिस्म के लिजलीजेपन से बाहर,
या यूँ कहूँ की कहाँ निकलने देता
कोई तुम्हे तुम्हारे अतीत से बाहर,
कौन बनता तुम्हारी राह का 'हमसफ़र',
कोई नहीं,
'कोई भी नहीं',
माना की ये आंसू सच्चे हैं,
लेकिन ये तुम्हारी 'मौत' के आंसूं हैं,
तुम्हारे 'जिन्दा न रहने' के नहीं ...

!!अनु!!

Thursday, 13 December 2012

इक लम्बा अन्तराल तुमसे मिलना पहली बार !!

इक  लम्बा अन्तराल
तुमसे मिलना पहली बार !

'गुजरे'
उन तमाम वर्षों में
कभी याद नहीं किया तुम्हे
याद रहा तो बस इतना  ही
कि  तुम्हे याद नहीं मैं
तुम्हारे किसी एहसास
किसी भाव में नहीं मैं,  
तब भी  लिखना चाहती  थी
तुम पर,
अजीब विडम्बना है न,
जब तुम थे तब शब्द नहीं थे,
'और  आज'
जब शब्द हैं तो तुम नहीं हो,
जीवन  तब भी था , जीवन अब भी है,
'पर जिंदगी'
जिंदगी नहीं,  
सूरज का निकलना,
उसका डूबना,
बदस्तूर जारी है,
'गर नहीं है' तो किसी 'सहर'
किसी 'शाम' में 'तू नहीं है',
वक़्त के साथ धुंधलाती तस्वीरों में,
 'तुम्हारी तस्वीर'
'आज भी'
साफ़ साफ़ दिखाई पड़ती है मुझे
हवाओं का फुसफुसाना ,
फूलों का खिलखिलाना
अब भी सुनाई पड़ती हैं मुझे ,
'सोचा था एक बार',
भ्रम हो शायद ,
टूट जायेगा,
लेकिन जाने क्यों, होता है ये हर बार ,
'बार - बार' ..
इक  लम्बा अन्तराल, तुमसे मिलना पहली बार !

Saturday, 8 December 2012

'स्त्री'

अस्मत जो लुटी तो तुझको 
बेहया कहा गया, 
मर्जी से बिकी तो नाम 
वेश्या रखा गया,

हर बार सलीब पर, 
औरत को  धरा गया ...

बेटे के स्थान पर,
जब जन्मी है बेटी, 
या फिर औलाद बिन, 
सुनी हो तेरी  गोदी, 
कदम कदम पर अपशकुनी 
और बाँझ कहा गया, 




जब भी तेरा दामन फैला, 
घर के दाग छुपाने को ,
जब भी तुमने त्याग किये थे ,
हर दिल में बस जाने को, 
इक इक प्यार और त्याग 
को 'फ़र्ज़' कहा गया,  


पंख  पसारे आसमान को, 
जब जब छूना चाहा, 
रंग बिरंगे सपनों को, 
हकीकत करना  चाहा
तू अबला है तेरी क्या, 
औकात कहा गया ...
हर बार सलीब पर, 
औरत को  धरा गया ...




Saturday, 27 October 2012

भोजपुरी गीत

बहा त पिरितिया के, फिर से बयार हो,
जबसे हैं अईले सांवर, बलमु  हमार हो।

नाही चाही चूड़ी हमके, नहीं चाही कंगना,
तुही बाटा  बिछुआ, पायल, तुही श्रंगार हो।.

जबसे तू गईला हमके, छोड़ी के विदेशवा,
सूना पड़ल साजन, अंगना दुआर हो।.

केकरा से हाल कहती, केसे दिल के बतिया,
भावे नाही गाँव, टोला, नाही संसार हो।.!!अनुश्री!!


Sunday, 21 October 2012

दुर्गा पूजा

आज दुर्गा अस्टमी है, हम लोग हर साल..इसी दिन घुमने जाते.. नवमी को इसलिए नहीं जाते थे, क्यूँ की उस दिन भीड़ बहुत होता था, और सप्तमी को कम भीड़ की वजह से घुमने का मजा नहीं आता था।

ठीक नौ बजे रात में निकलते थे, माँ, पापा, दीदी, भैया, हम और गुड्डू (छोटा भाई), वैसे तो घर में कार नहीं था, लेकिन मेरे पापा, सुपर पापा थे, बिना बताये पहले से बुक करा के रखते थे। और कपडा, 'हाँ' कपडा तो दू गो चाहिए होता था, एक गो में काम कहाँ चलता। जो कपडा पहिन के दुर्गा पूजा देखते थे, उसी को पहन के दशहरा, कभी नहीं। अईसा तो होईए नहीं सकता था। कोई सहेली या कोई जान पहचान का दुनो दिन मिल गया तो, केतना बेइज्जती हो जाता। आराम से रात में निकलते, धुर्वा, डोरंडा, और नामकुम घूम कर फिर रांची का देखते थे। फिर आखिर में खा - पी कर घर। (उस दिन घर में रात का खाना नहीं बनता था)
आज उ दिन भी नहीं है, पापा भी नहीं है, और न ही पूजा में घुमने का पहले जैसा जोश। सब कुछ बदल गया।

(कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन)

Tuesday, 9 October 2012

गीत

मेरी हर बात को जब हंस के उड़ा देते हो
है क़सम जान,,, मेरी .जान जला देते हो ...


अजब है तेरा, मेरे ख्वाब में आना जालिम,
चाँद को जलता, आफताब बना देते हो..


कभी गिरे जो मेरे अश्क, तेरे हाथों पर,
आब-ए -चश्म* को, नायाब बना देते हो,


उतर के आते हो, जब तुम 'अनु' की आँखों में,
जिंदगी को हसीन,  ख्वाब बना देते हो...



*आँसू 

Friday, 5 October 2012

'प्रेम' मन से देह तक

'प्रेम'
एक लम्बा
अंतराल हो गया,
उससे संवाद हुए,
यक़ीनन, तुम्हे याद नहीं होगी वो,
पर उसे  याद हो तुम,
तुम्हारी नीली आँखें,
शरारती मुस्कान,
'तुम्हारा' उसे  छुप छुप कर देखना,
सब याद है उसे ,
प्रेम के उन चंद सालों में
पूरी जिंदगी जी ली उसने ,
'प्रेम' सुनने में लफ्ज़ भर,
जिओ,
तो पूरी जिंदगी बदल जाती है,
तुम चाहते थे, 'पूर्ण समर्पण'
और वो, 'सम्पूर्ण व्यक्तित्व',
तुम दिल से देह तक जाना चाहते थे,
और 'वो' दिल से आत्मा तक,
तुम्हारा लक्ष्य 'उसकी  देह'
 'उसका', ' तुम्हारा सामीप्य',
उसके  लिए प्रेम, जन्मों का रिश्ता,
तुम्हारे लिए, चंद पलों का सुख,
परन्तु अपने प्रेम के वशीभूत वो,
शनैः शनैः घुलती रही,
तुम्हारे प्रेम में,
'जानती थी'
उस पार गहन अन्धकार है,
'फिर भी'
तुम्हारे लिए, खुद को बिखेरना,
मंजूर कर लिया उसने ,
'और एक दिन
तुम जीत ही गए, 'उसकी देह'
और वो  हार गयी, 'अपना मन'
'फिर'
जैसे की अमूनन होता है,
तुम्हारा औचित्य पूरा हो गया,
'और तुम'
निकल पड़े एक नए लक्ष्य की तलाश में,
'और उसने'
उन लम्हों को समेट कर
अपने आँचल में टांक लिए,
रात होते ही 'उसका आँचल',
आसमां ओढ़ लेता है,
'वो',
हर सितारे में निहारती है तुम्हे,
रात से लेकर सुबह तक.....

Wednesday, 3 October 2012

तुम ढूँढना मुझे

तुम
ढूँढना मुझे, दिल की गहराई में,
मुझको ही पाओगे, संग तन्हाई में।

फागुन की बयार में, खेलोगे गुलाल जब,
रंगों के प्यार में, धरती होगी लाल जब,
झोंका बन के आउंगी, अबके पुरवाई में।
ढूँढना मुझे, दिल की गहराई में,


सावन में झूम के, गाओगे मल्हार जब,
तेरे मेरे प्रेम से, भीगेगी फुहार जब,
बरसेगा प्रीत रस, अबके जुलाई में।
ढूँढना मुझे, दिल की गहराई में,


भीनी से खुशबु बन, महकेगा प्यार जब,
सांवर सी गोरिया, बनेगी संसार जब,
खनकेगी चूड़ियाँ, अबके कलाई में।
ढूँढना मुझे, दिल की गहराई में, 

Thursday, 27 September 2012

हिरोइन नही थी वो

हिरोइन नहीं थी वो,
और न ही किसी मॉडल एजेंसी की मॉडल
फिर भी,
जाने कैसा आकर्षण था उसमे
जो भी देखता, बस, देखता रह जाता,
उसका सांवला सा चेहरा,
मनमोहक मुस्कान,
और आँखें..?
आँखें तो जैसे के बस,
अभी बोल पड़ेंगी,
उम्र 17 साल
गंभीरता का आवरण ओढ़े,
जिए जा रही थी..
इक अजीब सा दर्द झलकता था,
उसकी आँखों से,
खामोश रहती थी वो,
किसी को अपना राजदार
जो नहीं बनाया था उसने,
फिर मैं मिली उससे,
उसकी राजदार,
उसकी सहेली बनकर,
'उसकी कहानी '
जैसे,
जिंदगी को कफ़न पहना दिया गया हो,
अपने रिश्तेदार की शोषण की शिकार वो,
जिन्दा लोगों में उसकी गिनती ही कहाँ होती थी,
वो निर्बाध बोलती रही,
और मेरी आँखे निर्बाध बरसती...
'एक दिन'
लापता हो गयी वो,
कोई कहता, 'भाग गयी होगी',
कोई कहता, ' उठा ले गयी होगी ,
जितने मुंह , उतनी बातें,
आज अचानक उसे रैम्प पर चलता देख,
हतप्रभ रह गयी मैं,
जिंदगी ने कहाँ से कहाँ पंहुचा दिया उसे,
मैं फिर चल पड़ी,
बनने उसकी राजदार,
इतनी यंत्रणा, इतनी पीड़ा,
कैसे मुस्कुराती है वो,
सब मन में समेट  कर,
उसके फैक्ट्री के मालिक ने,
दुराचार किया था उसके साथ,
विरोध करने पर चोरी का इलज़ाम लगा,
जेल भेज दिया,
पर रक्षक के भेष में छुपे,
वो भेड़िये भी टूट पड़े  उस पर,
उसका रोना, गिडगिडाना ,
सब ठहाकों की शोर में दब कर रह गया,
तब  ठान लिया उसने,
अब नहीं  रोएगी वो,
अपनी रोंदी हुई मुस्कान,
मसला हुआ जिस्म लेकर,
यहीं इसी दुनिया में रहेगी वो,
जियेगी, भरपूर जियेगी,
--
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और आज
वो सचमुच की हिरोइन है।



Wednesday, 26 September 2012

औरतें

एक औरत,
जब लांघती है,
घर की देहरी,
चाहे सपनों के लिए,
चाहे अपनों के लिए,
हज़ार हिदायतें,
तमाम वर्जनाएं
बांध दी जाती हैं,
पल्लू से उसके,
गलत तो नहीं होता है ये,
बाहर की दुनिया,
वहां के लोग,
उफ्फ!!
ये जिस्म भेदती नजरें,
लपलपाती जीभ,
छूने को लपकते हाथ,
बदचलनी का तमगा,
आसानी से उपलब्ध का ठप्पा,
मुफ्त में
कितनी ही उपमाएं मिल जाती है।.
जैसे की बस,
देहरी लांघती औरत,
अपनी इज्ज़त भी वही देहरी पर
टांग आई हो।..

Monday, 24 September 2012

Gazal


इश्क की रात मैं. घटा बन कर रहू
मैं तो खुशबू हूँ, हवा बन कर रहूँ, 

चाँद के इश्क में, जल रही चांदनी, 
अपने परवाने की, शमा बन कर रहूँ, 

है तमन्ना यही, बस यही ख्वाब है.. 
उसके होठों पे मैं, दुआ बन कर रहूँ, 

तेरी रुसवाई का, ये सिला अब मिले, 
इस ज़माने में मैं, सजा बन कर रहूँ, 

इश्क की राह पर, वो कदम जब रखें, 
उनकी नस - नस में मैं, वफ़ा बन कर रहूँ.... !!अनु!! 

Tuesday, 18 September 2012

राजू

राजू नाम था उसका, प्यारा, मासूम सा। कई जगह से फट चुके, कई जगह से पैबंद लगे कपडे पहन, चला जा रहा था, अपनी ही धुन में गुनगुनाता हुआ। उसके कदम 'माँ वैष्णो ढाबा' के पास रुक गए। 'आ गया तू' सुनते ही उसका गुनगुनाना बंद हो गया। 'एक तो देर से आया, उपर से गाना गा रहा है.. चल, जुट जा काम पर'... कहते हुए ढ़ाबे के मालिक ने एक चपत रसीद दी उसे। आँखों में आंसू भर वो जुट गया काम पर। 6 जनों का परिवार था उसका। दो भाई, दो बहन, विधवा माँ, और खुद वो। सबके भरण पोषण की जिम्मेदारी थी उसपर...
 
       यही थी उसकी दिनचर्या, सुबह पांच बजे से लेकर रात के 10 बजे तक ढाबे में रहता था वो। रोज़ समय से आने वाला राजू, अगर कभी लेट हो जाये तो ऐसे स्वागत होता था उसका। यूँ तो उसे ढाबे में तीनो टाइम का खाना मिल जाता था, लेकिन कभी कभी खाना कम पड़ जाने पर किसी किसी टाइम भूखा भी रहना पड़ता था।
  उस रोज़ भी यही हुआ था, दोपहर में खाना ख़त्म हो जाने की वजह से उसे खाना नहीं मिला। हालाँकि, उसे भूख बहुत जोरों की लगी थी। किसी तरह उसने पानी पी कर, अपनी क्षुधा शांत की। रात के खाने के इंतज़ार में, वो ख़ुशी ख़ुशी काम करता रहा.. अचानक उसकी नजर दरवाजे पर पड़ी। दो ग्राहक चले आ रहे थे। 'चल बे, दो फुल  थाली ले कर आ'.. वो चुपचाप खाना लाने चला गया। रसोई में पहुँच कर उसने देखा की खाना बहुत कम बचा है। शायद इन ग्राहकों को देने में ही ख़त्म हो जायेगा। भूख के मारे उसके पेट में मरोड़े उठ रही थी। अब उससे रहा नहीं गया, उसने रसोइये की नजर बचा कर दो रोटी अपने कपड़ों में छुपा ली। सब काम निपट जाने पर उसने थोडा नमक लिया और एक कोने में बैठ कर खाने लगा। तभी किसी काम से ढाबे का मालिक अन्दर आया, राजू पर नजर पड़ते ही वो बौखला गया। 'साले, चोर कहीं के, रोटी चुरा कर खा रहा है, अभी बुलाता हूँ पुलिस को'... राजू, रोता रहा, गिड़गिडाता रहा, लेकिन ढाबे वाले का दिल नहीं पसीजा।
 
       उस दो रोटी को चुराने की वजह से राजू पर केस चला, और उसे सजा के तौर पर बाल सुधार गृह भेज दिया गया। राजू के आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उसे बस अपनी माँ और भाई बहनों की चिंता लगी थी। एक दिन जेलर ने उसे रोते हुए देखा। बहुत प्यार से उसके सर पर हाथ फेर कर  उन्होंने उसके रोने का कारण  पूछा। राजू ने रोते रोते सारा हाल कह सुनाया। जेलर को राजू पर बहुत दया आई, उसने जेल में ही राजू के पढना का इन्तेजाम कर दिया। एक दिन राजू की माँ आई उससे मिलने। वो माँ के गले लग खूब रोया, "माँ , माँ मुझे माफ़ कर दो, मेरी वजह से तुम सब को कितने दुःख उठाने पड़ रहे हैं".. माँ ने राजू को गले लगा लिया, उसके आंसू पोछते हुए बोली, "बेटा, ये जो जेलर साहब है न, बहुत अच्छे हैं, उन्होंने मुझे सिलाई मशीन दी है, तुम चिंता मत करो, हमारी रोजी रोटी बहुत अच्छे से चल रही है, अब तो तुम्हारे भाई बहन स्कूल भी जाने लगे हैं".. सुन कर राजू एक बार फिर जोर से रो  पड़ा, लेकिन इस बार उनकी आँखों में आंसू दुःख के नहीं बल्कि ख़ुशी के थे। उसने जेलर साहब के पैर छूने चाहे, तो उन्होंने उसे गले से लगा लिया, "मैंने अपनी तरफ से कुछ नहीं किया, ये तुम जो दिन रात मेहनत कर के दौरी बनाते हो न, उन्हें ही बेच कर मैंने ये सब किया है".
 
      दिन गुजरने लगे... राजू बड़ा हो गया।. उसने जेल से ही बी0 ए0 कर लिया.. कभी  सपने में भी नहीं सोचा था उसने कि  अपने पेट की आग बुझाने की इतनी बड़ी सजा मिलेगी उसे।. फिर एक दिन वो भी आया। जब राजू की सजा पूरी हो गयी और वो रिहा हो गया।

     तक़रीबन दो साल के बाद राजू फिर उसी जेल  की चारदीवारी के बीच नजर आया। लेकिन इस बार उसके बदन पर कैदी की नहीं बल्कि सुपरिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस की वर्दी थी।..

 ( काश की हर राजू को ऐसा हो कोई जेलर मिल जाये। तो उसकी जिंदगी बन जाये।)
  

Thursday, 13 September 2012

स्त्री देह

'देह'
स्त्री की,
जैसे हो, कोई खिलौना,
पता नहीं, 'कब' 'किसका'
मन मचल पड़े,
'माँ' 'माँ' यही खिलौना चाहिए मुझे,
मेरे मन को भा गया।.

तो क्या हुआ ?
गर, किसी और का है,
मुझे खेलना ही तो है,
नहीं चाहिए,
मुझे कोई दूसरा खिलौना,
'यही चाहिए, तो यही चाहिए' ...

एक दिन मिलता है, वही खिलौना,
रौंदा हुआ, टुटा हुआ,
लोग अनजान, 'कब हुआ' किसने किया'?
हजारों हाथ आगे बढे, लाखो आवाज़ गूंज उठे,

'तुम कदम उठाओ, हम तुम्हारे साथ हैं,
तुम्हारी इक आवाज़ में, हमारी भी आवाज़ है'

पर उन हजारों हाथों में,
कोई एक भी हाथ नहीं था, 
'उसके सिन्दूर का'
कोई एक भी आवाज़ नहीं थी,
उसके प्यार की,
कोई एक भी कदम नहीं था,
उसके साथ चलने के लिए,
'जीवनभर'

(यही है ....इस समाज का सच, बलात्कार से पीड़ित स्त्री से सहानुभूति तो सब रखते हैं, लेकिन उसका हाथ थामने, कोई आगे नहीं आता)


Saturday, 1 September 2012

बीते हुए दिन

तारीखें बदलती रहीं,
दिन, महीने, साल, बीतते रहे,
पर तुम
'कभी नहीं बन पाए'
'मेरे बीते हुए दिन',
हमेशा की तरह, आज भी
हाथों में हैं,
तुम्हारा हाथ,
आज भी ताज़ा है,
माथे पर अंकित तुम्हारा प्यार,

ऋतुएँ, आती जाती रहीं,
परन्तु,
मेरे मन का ऋतु तटस्थ ही रहा,
बिना कोई बदलाव लिए,
उम्र के इस मोड़ पर
जब इंसान सपने देखना बंद कर देता है,
मेरी पलकों में,
ख्वाब के सितारे, टिमटिमाते रहते हैं,
उम्मीद की उर्जा के साथ,

'तुम'
हमेशा  ही मेरा आज ही रहे'
"बीता हुआ कल भी नहीं, आने वाला पल भी नहीं'...

Tuesday, 21 August 2012

मेरी कविता

तुम्हारा,
यूँ चले जाना,
'जैसे' विराम लग गया हो,
मेरी कविता पर,
क्या तुम्हे
तनिक भी आभास नहीं,
कि तुम्हारे ही
इर्द - ग़िर्द घूमती है,
मेरी कविता',
तुम्हारी हँसी में
खिलखिला उठती है,
रो पड़ती है,
तुम्हारे आँसूओं संग,
इनमें 'तारों की' चमक नहीं,
चाँद की शीतलता,भी नहीं,
न तपन,सूरज की,
लहरें नहीं,, सागर नहीं,
दरिया नहीं,, भूधर नहीं,
तुमसे, सिर्फ़ तुमसे,
जीवन्त हो उठती है,
मेरी कविता ....
!!अनुश्री!!

Saturday, 18 August 2012

कभी कभी

कभी कभी खामोशियाँ भी 
अफ़साने कह जाती हैं,
'तो कभी', 
लफ्ज़ ही नहीं मिलते, 
खुद को जताने के लिए।




कुछ निरर्थक से सवाल करती हूँ जिंदगी से,
क्या 'जीवन सार्थक हो जाता है,
प्रिय को पा लेने के बाद, 
या रह जाते हैं कुछ अनुत्तरित से प्रश्न 'तब भी'? 
जवाब ढूंढ़ती जिंदगी,
'मौन है' आज तक।..



तुम ही रहोगे,
'हमेशा'
मेरी पहली प्राथमिकता,
क्या तुम्हे नहीं पता? 
मेरे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है,
न 'दिल' का, न 'प्रेम' का.. !!अनु!!



'प्रेम' 
नहीं पहुंचना मुझे 'तुम तक' 
'कुछ दिन', 'कुछ पल', 
की शर्त पर भी नहीं,
चाहे जिद समझो इसे 
या मेरा स्वार्थ, 
तुझ में खो कर, 
तुझे खो दूँ,
उससे तो मेरा इंतज़ार भला.. !!अनु!! 

'रात' 
ढूंढ़ती रही तुम्हे, 
कुछ ख्वाब, 
कुछ अभिलाषाएं लिए,
'प्रेम'
पढता रहा तुम्हे, 
ख़ामोशी को साथ लिए..!!अनु!


'मुझे' 
नहीं चाहिए, 
तुम्हारा समर्पण, 
'प्रेम में' 
तुम्हारी आहुति, 
'तुम' 
बने रहना, 
'मेरे आराध्य'
और 'मैं' 
तुम्हारी 'मीरा'... !!अनु!!


तुम्हारा प्रेम, 
नहीं करने देता, 
मुझे कोई भी तर्क-वितर्क, 
और ना ही पड़ना है मुझे, 
सच और झूठ के इस चक्रव्यूह में, 
मेरा तो बस एक ही सच है,
'सच' तुम्हारे प्रेम का.. !!अनु!!

Sunday, 12 August 2012


ख्वाहिशों ने ली अंगड़ाई, 
'मन' पंख लगा उड़ने लगा,
 श्वेत - श्याम सपनों में भी,
 'रंग' सा भरने लगा,
 इक ख्वाब था टुटा हुआ,
 इक साथ था छूटा हुआ, 
'कैद' रही उस चिड़िया को,
'खुला' आसमां मिलने लगा... !!अनु!! 


तुम्हारा, 
मुझसे मिलना तय था, 
'और' 
तय था..
बिछड़ जाना भी, 
नियति के चक्र में बंधे, 
'मैं और तुम' 
बाध्य हैं,
जीवन के, 
इन तयशुदा रास्तों पर,
चलने के लिए।.. !!ANU!!

Monday, 16 July 2012

'मैं' 'नीलकंठ' न सही


'मैं'
'नीलकंठ' न सही,
फिर भी पीती हूँ,
'तुम्हारे'
अपमान से भरे,
'विष' के प्याले...
कई दफे,
'तुम्हारे'
जहर बुझे, व्यंग बाणों
से छलनी होते 'मन' पर,
'स्वयं' ही लगाती हूँ,
'मरहम'

'मैं'
'शिव' भी नहीं,
फिर भी,
'तुम्हारे'
क्रोध के तीव्र वेग को,
समाहित करती हूँ,
खुद में,
परिवर्तित करती हूँ,
निर्मल, शीतल धारा में,
'और'
अर्पित करती हूँ,
तुम्हारे अपनों को,
'ताकि'
तुम्हारे 'अपने'
तृप्त हो सकें,
'तुम्हारी'
वाणी की 'मिठास' से..... !!अनु!!

Monday, 2 July 2012

छोटी छोटी बातें ....



हर बात को हंस कर,
उड़ा देना आसन नहीं होता,
नम पलकों का,
मुस्कुरा देना आसन नहीं होता,
सपनों के टूटने का दर्द,
हसरतों के छूटने का दर्द,
तन्हाई को दिल में,
पनाह देना आसान नहीं होता.... !!अनु!!***
तुम्हारी जुदाई से उपजा 'अधूरापन',
बड़ा नहीं होता, 
मेरी अश्कों की सिचाई से,
जो पक जाती ये फसल,
तो इसे काट कर, 
अगली बार बो देती, 
हंसी और ख़ुशी की फसल .... !!अनु!!
गर उलझने सुलझ जाये, चाहते मिट जाएँ...तो ऐ मेरे दोस्त, 'जिंदगी मुकम्मल 'न' हो जाये'..
पुरे जहान में 'तुमसा', कोई नहीं.. के तुम, तुम हो.. 'सिर्फ तुम'..*****
अक्सर मेरी रातें गुजरती हैं .. 'तन्हा', चाँद में तुम्हारा अक्स तकते हुए....... !!अनु!!****
कितनी कहानियां गढ़ जाते हो तुम, मेरी और अपनी कहानी ले कर..!!अनु!!****
कुछ अजनबी हो कर भी, संग निभाते चेहरे,'और' कुछ अपने हो कर भी, दूर जाते चेहरे..!!ANU!!***
‎'मैं' और 'तुम', नदी के दो 'किनारों' की तरह, हमेशा साथ रहेंगे, 'बिना मिले'... !!अनु!!***
मीलों की दुरी, मिलन में बाधा नहीं, 'तुम' 'देह' से दूर हो, ह्रदय से नहीं.. !!अनु!!*****
तुम्हे तो कभी अपने प्यार में बांध कर नहीं रखा मैंने ... फिर क्यूँ .... फिसलते चले गए बंद मुट्ठी में पड़े रेत की तरह...****

Tuesday, 5 June 2012

सफ़र

शाम घिर आई,
'दूर'
डूबते सूर्य की स्वर्णिम आभा,
जैसे प्रकृति ने निद्रामग्न होने के लिए,
सुनहरी, चादर तान ली हो,
हमेशा से ही यह दृश्य.. मुझे लुभाता रहा है,
ट्रेन बढती जा रही,
अपने गंतव्य की ओर,
'ओर मैं'
प्रकृति की इस छटा में डूबकर,
सिंदूरी हो रही हूँ,
'तुम्हारे शहर'
'हाँ' तुम्हारा ही तो है वो,
विदा होते ही मैं बदल गयी,
मेरा शहर बदल गया,
'तो' मैं कह रही थी..
तुम्हारे शहर की ओर बढ़ता,
मेरा एक एक कदम,
मुझे अतीत की गहराईयों में ले जा रहा,
इस शहर को छोड़ने से पहले, 
विदा लेने से पहले,
एक वादा किया था अपने आप से,
जिस बेरुखी से तुमने,
मेरा साथ छोड़ा था 'न' ..
अगर कभी तुम्हारा सामना हुआ भी..
'तो'
कोई प्रतिक्रिया नहीं करुँगी... 
मगर जाने अनजाने कभी दिख गए तो ???
तुम्हारी नजर मुझ पर पड़े,
इससे पहले ही, तुम्हे अनदेखा कर निकल जाउंगी...
'शायद नहीं'..
तुम्हे अनदेखा नहीं कर सकती मैं,
एक बार अगर मैं कर भी दूँ तो.. ये दिल..???
ये दिल तो धड़कने लगेगा,
'जैसे' अभी अभी यौवन की दहलीज़ पर
कदम रखा हो..
'जानते हो क्यूँ?'
ये आज भी वहीँ है, उसी जगह, उतना ही मासूम...
उम्र तो जैसे इसे,
छू कर भी नहीं गयी....

'बस'
वक़्त बदलता रहा..
देहयष्टि बदलती रही..
जिंदगी बदलती रही..
!!अनु!!

Friday, 18 May 2012

कभी - कभी



कभी - कभी,
नाहक ही,
तुम्हारी सोच की फसल,
लहलहा उठती है 'मन में',
जाने क्यूँ होता है ऐसा,
मैं तो तुम्हे याद भी नहीं करती....
'हाँ'कभी कभी कोई ख़ास व्यंजन बनाते वक़्त,
 ये ख्याल जरुर आता है,
 क्या ये आज भी तुम्हारी पसंद में शामिल होगा?
मौसम के साथ मिजाज जो बदल जाते हैं,
और फिर अरसा हो भी तो गया...
जब कभी बाज़ार में, दिख जाते हैं,
तुम्हारे पसंदीदा रंग के कपडे,
'या फिर'
अनायास ही, परफयूम की जानी पहचानी सी खुशबू,
 तैर जाती है हवाओं में, 'तब' ख्याल आता है तुम्हारा....
हाथों में रचती हुई मेहँदी के साथ,
जिनमे तुम, अपना नाम ढूंढते थे,
कभी - कभी,
तुम्हारी यादें भी महक जाती हैं...
लेकिन 'हाँ',
इससे ये साबित नहीं होता, के मैं तुम्हे याद करती हूँ...
घर, बच्चे
कितने सारे काम
इतनी फुर्सत कहाँ,
कि मैं तुम्हे याद करूँ
बस यूँ ही
कभी - कभी,
नाहक ही,
तुम्हारी सोच की फसल,
लहलहा उठती है 'मन में.

!!अनुश्री!!

Tuesday, 8 May 2012

लीची

'लीची' सब लोग तो जानते ही होंगे.. लेकिन एक ख़ास बात, पता नहीं होगी किसी को... 'हाँ' मेरे रांची के दोस्त शायद जानते हों... 'लीची' का पत्ता और 'पुटुष' का बीज, दोनों मिला कर खाने में मुह एकदम पान खाने जैसा लाल हो जाता है.. :).. माँ को बहुत चिढाते थे.. 'देख अम्मा... हम पान खाय है'.. और जब वो गुस्सा हो जाती, तब बताते थे.. कि ' ये तो लीची का पत्ता है'..:)..  मामा का घर मुजफ्फरपुर में है.. करीब करीब हर साल भेज देते थे.. अब तो कानपूर में खरीद कर खाना होता है.. लेकिन तब कि बात अलग थी..सब भाई बहन.. एक एक झोपा ले कर बैठ जाते थे..

Saturday, 28 April 2012

तुम्हारा जाना

"जानाँ"
तुम्हारा जाना,
कहाँ रोक पाई थी तुम्हे,
'जाने से'
जी तो बहुत किया,
हाथ पकड़ कर रोक लूँ तुम्हे,
क्या करती?
जिस्म ने जैसे आत्मा का साथ देने से, 
इनकार कर दिया हो.. 
बुत बनी बैठी रही, 
'और तुम ' 
सीढ़ी-दर- सीढ़ी उतरते चले गए,   
दौड़ कर आई छज्जे पर,
मुझे देख कर मुस्कुरा पड़े थे,
और हाथ हिला कर
'विदा लिया'..
छुपा गयी थी मैं,
अपनी आँखों की नमी,
अपने मुस्कुराते चेहरे के पीछे,
जानते हो, बहुत रोई थी, 
तुम्हारे जाने के बाद.. 
तुम्हारा फ़ोन आता, 
'पर तुम' 
औपचारिकता निभा कर रख देते, 
"मैं"     
मुस्कुरा पड़ती,
ये सोच कर, के तुम जानबूझकर सता रहे हो,
कैसा भ्रम था वो? टूटता ही नहीं था, 
लेकिन भ्रम तो टूटने के लिए ही होते हैं न, 
टूट गया एक दिन, मेरा भ्रम भी, 
ख़त्म हो गयीं सारी औपचारिकताएं... 
कितने आसन लफ़्ज़ों में, 'कहा था तुमने', 
"मुझे भूल जाना" 
"जानाँ" 
भूलना इतना ही आसान होता, 
'तो'  
तुम्हारे विदा लेते ही, भूल गयी होती तुम्हे, 
'खैर' 
कभी तो आओगे, 
शायद सामना भी होगा, 
'बस' 
इतना बता देना, 
"मेरी याद नहीं आई कभी?"  

Sunday, 22 April 2012

waqt


वक़्त
चलता ही रहता है,
अपनी धुन में
बिना किसी मतलब के,
कौन दुखी है,
कौन सुखी,
कोई लेना देना नहीं,
'बस' चलते जाना है..
कहा जाता है,
वक़्त के दम पर पूरी दुनिया चलती है,
पर कैसे यकीं करूँ,
जब मेरा छोटा सा काम भी इससे नहीं होता,
"बस' एक काम..
सबके दुःख के दिन छोटे कर दे,
और
सुख के दिन लम्बे.. !!अनु!!

Sunday, 8 April 2012

अतीत


'लडकियां'
जिनका एक माजी होता,
स्याह अतीत होता है,
जब बैठती हैं, 'ब्याह' की वेदी पर,
झोंक देना चाहती हैं,
अपने अतीत की सारी कालिख,
उस ब्याह की अग्नि में,
'पर'
कहाँ हो पता है ऐसा,
वक़्त मन के घाव तो भर सकता है,
पर नासूर नहीं, वो तो रिसते रहते हैं,
'हमेशा'


"जैसे रेंगते रहते हों,
असंख्य कीड़े,
देह पर,
आत्मा
की गन्दगी,
नहीं छूटती,
सैकड़ों बार नहा कर भी"

पीड़ा का अथाह सागर समेटे,
बन जाती हैं दुल्हन,
समाज की खातिर,
परिवार की खातिर,
कोई नहीं देखता,
उसकी लहुलुहान आत्मा,

जब भी अतीत भूलकर,
वर्तमान में जीने लगती है,
हंसती है, खिलखिलाती है,
वक़्त मारता है,
एक जोर का चांटा,
उसके मुंह पर,
"बेशरम कहीं की"
ऐसे हादसों के बाद भी,
कोई खुलकर हँसता है भला,

कोई याद दिलाता है अक्सर,
यूँ प्यार जताना,
शिकवे-शिकायत करना,
अपने मन के भाव जताना,
'तुम्हे' शोभा नहीं देता,

एहसान मानो मेरा,
स्वीकार किया है तुम्हे,
तुम्हारी आत्मा के हर घाव के साथ,
'वो'
समेट लेती है, मन के घाव मन में,
जीती है जिंदगी, घुट -घुट कर,

क्या सच में नहीं होता,
यूँ घुट - घुट कर ताउम्र जीने से अच्छा,
एक बार का मर जाना... !!अनु!!




Monday, 2 April 2012

नफरत


'तुमसे'
अब प्रेम नहीं,
नफरत करती हूँ मैं,
वो भी इतनी 'कि' अगर
तुम मरते वक़्त पानी भी मांगो न ,
तो एक बूँद पानी न दूँ तुम्हे...

ये नफरत का बीज
उसी दिन अंकुरित हो गया था,
जब कहा था तुमने,
'विवाह कर रहा हूँ मैं'
'न' सिर्फ विवाह नहीं,
'प्रेम विवाह'

दंग रह गयी थी मैं,
अगर ये तुम्हारा प्रेम है,
तो वो क्या था?
जब मेरा हाथ पकड़ कर
तुमने कहा था,
"इन हाथों
को कभी अपने
हाथों से अलग न होने दूंगा",
क्या था वो? 'प्रेम' या प्रेम के नाम पर छल,

धीरे धीरे नफरत का ये बीज,
विशाल पेड़ बन गया,
जिसके हरेक शाख पर
नफरत के सैकड़ों फूल खिलते हैं,

पर ये फूल,
हमेशा भी तो नहीं रहेंगे न,
एक दिन सूख कर गिर जायेंगे,

'कुछ', ऐसा ही होगा,
मेरे साथ भी,
तुमसे नफरत करने का,
ये झूठा आवरण
एक दिन
उतर जायेगा,

तुम सामने आओगे,
'और'
ये सारी 'नफरत',
सारी 'घृणा'
आंसुओं में ढलकर
बह जाएगी.... !!अनु!!

Thursday, 29 March 2012

मैं

'काश'
कभी ऐसा हो,
दर्द और जज्बात के,
सारी हदों के,
पार जाऊं मैं,
ख़त्म हो जाये जिजीविषा,
'मुक्त हो' इस
स्थूलकाय देह से,
'हल्की हो'
विचरने लगूं,
अपनी ही देह के आस पास,
घूंट भर भर अपमान पीया ,
भुगता है कटाक्ष का दंश,
दूर हो,
इस स्थूल काया से,
आनंदित हो जाऊं मैं..... !!अनु!!

Wednesday, 28 March 2012

मेरी रांची : कुछ यादें

'यादें, यादें बस यादें रह जाती हैं', ये गीत जैसे हम सबके जीवन से कहीं न कहीं जुडा जरूर हैं.. अपनी ट्रेन रामगढ़ में छोड़ कर बस से रांची के लिए चल पड़ी मैं.. अपोलो हॉस्पिटल के पास उतर कर माँ से मिलने हॉस्पिटल गयी.. माँ को देखते ही लगा की उनके गले लग कर खूब रोऊँ.. फिर लगा की अगर मैं कमजोर पड़ गयी तो उसे कौन सम्हालेगा.. बस, फिर क्या था, मुस्कुराते हुए माँ से मिली.. शाम तक माँ के पास रही.. फिर निकल पड़ी घर के लिए.. जैसे ही 'बरीआतु गर्ल्स स्कूल' पहुंची, जी किया की 'बस', ऑटो वाले से कह ऑटो रुकवा लूँ और दौड़ कर अपनी क्लास में जाऊं , छू कर देखूं उस बेंच को, जिस पर मैं, अंजना और पिंकी बैठा करते थे,.. अंजना की याद आते ही आँखें नम हो गयीं.. ये सब सोचते सोचते, कब 'सैनिक थिएटर' आ गया पता ही नहीं चला.. उस थिएटर से जुडा एक बहुत ही दिलचस्प वाक्या बताऊँ आपको, एक बार हमारी एन सी सी की क्लास जल्दी ख़त्म हो गयी, तो सबने प्लान बनाया की फिल्म देखी जाये... हम सब के सब एन सी सी ड्रेस में थे.. जब हमने थिएटर में एंट्री ली तो किसी ने टिकट नहीं माँगा, बल्कि फिल्म के बीच में , सभी कैडेट्स के लिए, समोसे आये... हमे लगा हमारी सीनिअर ने किया है सब... फिल्म देखने के बाद जब हम सबने उन्हें शुक्रिया कहा, तो उन्होंने कहा कि 'मैंने कुछ नहीं किया'.. न तो मैंने टिकट्स लिए और न ही समोसे के लिए पैसे दिए.. हम सब बहुत हँसे, लेकिन ये बात राज़ ही रह गयी, 'हमे बिना टिकट एंट्री क्यों मिली और समोसे किसने भिजवाए'... एन. सी. सी. कि वर्दी पहनने के बाद एक अलग सा जोश भर जाता था जैसे... 'और रौब'.. हाँ.. 'रौब' भी तो रहता था... कई बार तो ऑटो वाले पैसे भी नहीं मांगते थे, हम भी... कभी कभी ऑटो वाले को पैसे दे देते थे , तो कभी कभी एन सी सी ड्रेस का फायदा उठा कर यूँ ही चल देते थे... कुछ भी हो.. वो पल सुनहरे थे.. बहुत ही हसीन...

Friday, 23 March 2012

शाम


मेरी हर शाम,
उदासी का चोला पहन,
मंडराती है,
मेरे आस पास,
धीरे से कान में,
फुसफुसाती है,
तुम्हारा नाम,
मध्यम सी हंसी,
"जैसे"
माखौल उड़ाती हो मेरा,
'ले', बड़ा गुमान था न तुझे,
बड़े गुरुर से कहा था तुमने,
'यक़ीनन वो आएगा',
'हुह'
ये शाम का धुंधलका,
काली रात ले कर आएगा,
भोर का उजाला नहीं,
'उफ़'
उस एक शाम ने,
मेरी हर शाम उदास कर दी.. !!अनु!!

Thursday, 22 March 2012

माँ


मृत्यु शैया पर लेटी ,
गंभीर बीमारी से पीड़ित 'माँ',
चिंतित है,
इस बात से नहीं,
'कि'
इलाज़ कैसे होगा?
'बल्कि'
इस बात से,
'कि'
मेरे बाद,
मेरे बच्चो का क्या होगा.. !!अनु!!

Sunday, 4 March 2012

तुमसे


'तुमसे'
पाया ही क्या था,
'जिसे' खोने का सदमा हो..
'या फिर'
फिर से पाने की जिद,
थोडा अपमान,
'कुछ' कडवे बोल,
'और'
बार - बार छोड़ जाने की
धमकी के सिवा,
'हाँ'
एक बाद की दाद देनी होगी तुम्हे,
बड़ी शिद्दत से निभाया तुमने,
'अपना' एक - एक वादा,
मुझे छोड़ जाने का वादा,
'और जिंदगी भर'
रुलाने का वादा...

Saturday, 3 March 2012

तकदीर

हर बार छीन ले जाता है कोई,
मेरी तकदीर, मेरे ही हाथों से,
सुना था, गिर गिर कर उठना,
उठ कर चलना ही जिंदगी है..
यूँ, गिरते उठते,
आत्मा तक लहुलुहान हो गयी है..
क्या नाकामियों की,
कोई तयशुदा अवधि नहीं होती..?? !!अनु!!

Monday, 6 February 2012

स्त्री

स्त्री है वो, 
जब कभी 
'मन' उद्वेलित होता है,
तो जी करता है कि 
'चीखे' 
जोर से 
'चिल्लाये' 
जार जार 
'रोये' .
लेकिन आड़े 
आ जाती है
'स्त्री' होने की गरिमा ..
लोग क्या कहेंगे?
पडोसी क्या सोचेंगे?
ठूँस लेती है ,
अपना ही दुपट्टा,
अपने मुंह में,
'ताकि'
घुट कर रह जाये
उसकी  'आवाज़',
उसके  ही गले में...
और घोंट देती है 
अपने ही हाथों
'गला'
अपने 'स्वाभिमान' का.... !!अनुश्री!!

Sunday, 5 February 2012

स्त्री


कभी कभी 'मन'

बड़ा व्याकुल हो जाता है,

संशय के बादल, घने

और घने हो जाते हैं,

समझ में नहीं आता,

स्त्री होने का दंभ भरूँ,

'या' अफ़सोस करूँ...

कितना अच्छा हो,

अपने सारे एहसास,

अपने अंतस में समेट लूँ,

और पलकों की कोरों से,

एक आँसूं भी बहने पाए....

यही तो है,'एक'

स्त्री की गरिमा,

'या शायद'

उसके, महान होने का

खामियाजा भी...

क्यूँ एक पुरुष में

स्त्रियोचित गुण जाये,

तो वो ऋषितुल्य हो जाता है,

'वहीँ'

एक स्त्री में पुरुषोचित

गुण जाये तो 'वो'

'कुलटा'

विचारों की तीव्रता से,

मस्तिस्क झनझना उठता है,

दिल बैठने लगता है,

डर लगता है

ये भीतर का 'कोलाहाल'

कहीं बाहर जाये,

और मैं भी कहलाऊं

'कुलटा'

!!अनु!!

Sunday, 22 January 2012

निशाँ

आपको खो के 'अब', दिल में क्या रह गया,
जाते क़दमों का बाकी, 'निशाँ' रह गया...

जाँ तो जाती रही, आपके जाने से,
एक जिस्म मेरा, 'बस' यहाँ रह गया...

दिल ने दिल से कही, लाखों बातें मगर,
एक खामोश पल, दरमयां रह गया...

बरसों दिल में रहे, मेरे करके वो घर,
उनके जाते ही खाली, मकाँ रह गया....

मुड़ के देखा नहीं, यूँ खफा वो हुए,
उनकी यादों का 'बस' कारवां रह गया...

Friday, 20 January 2012

kuchh dil se

कहाँ सोचा था कभी..
उन आँखों में..
किसी 'और' को देखेंगे,
जिन आँखों में कभी,
'बस' हम बसा करते थे.....


अगर बांटने से कम होता,
'तो' जरुर बांटती 'अपना 'गम'..
लेकिन 'यहाँ',
कौन समझेगा भला?
'तुम्हे'
खो देने का दर्द....


सालों तुम्हारी ख़ुशी के लिए दुआएं मांगी...
पर आज ना जाने क्यूँ,
जलता है मन,
तुम्हे खुश देख कर..
'किसी और के साथ' .....

शाम हमेशा, उदास सी लगती है,
ख्वाहिशें हमेशा , बेहिसाब सी लगती है,
बेख़ौफ़ मुहब्बत, मुकम्मल जिंदगी,
क्यूँ हमेशा, ख्वाब सी लगती है... !!अनु!!

ऊपर 'आसमान' में,
तारों का हुजूम,
अगर ये 'सच है'
इंसान मरने के बाद
तारा बन जाता है,
'तो'
एक दिन,
मैं भी सिमट कर,
बन जाउंगी,
इन्ही असंख्य तारों में
'एक तारा'...

'आज'
मिटा कर अपना
'वजूद'
मुक्त कर दूंगी
'मैं', 'तुम्हे'
खुद से..



शब्दों के मायाजाल से परे,

कल्पनाओं से इतर,

उकेरती हूँ कागज पर,

आत्मा के स्वर.. !!अनु!!


जिंदगी,
चादर पर पड़ी सलवटों सी,
'बेतरीब'
एक लय में चलती ही नहीं,
अपने मन की मन में ही रख,
कितना मुश्किल होता है,
नम पलकों के साथ,
होठों पर मुस्कान सजाना.. !!अनु!!






यूँ हालात के आगे घुटने टेक देना,
नहीं थी मेरी नियति,
पर आज न जाने क्यों,
सब्र का प्याला छलक ही गया,..
आसान सी लगने वाली जिंदगी,
कितनी मुश्किलों से भरी है,
चारों ओर बेबसी की दीवार,
उम्मीद का एक झरोखा भी नजर नहीं आता..
गहराती इस रात का,
कोई सवेरा भी नज़र नहीं आता.... !!अनु!!

Wednesday, 18 January 2012

पापा

मेरे पापा,

आपका होना, होता था जैसे,

कड़ी धुप में, शीतल छाँव,

जिम्मेदारियों से मुक्त,

बेफिक्र सी जिंदगी,

सब तो दिया था आपने,

बेहिसाब दर्द,

परेशनियों का हुजूम,

सब जैसे थी, ख्वाब की बातें..

जाना ही नहीं, आर्थिक परेशानी किसे कहते हैं,

जब जो चाहा, जो माँगा, आपने दिया,

बिना किसी शिकन, बिना किसी उलझन,

आज जब एक -एक चीज़ के लिए मशक्कत करनी पड़ती है,

तब पता चलता है, कितनी परेशानियों से जूझते थे आप...

और हमें आभास भी नहीं होने देते थे,

कभी कभी, जब भी जीवन से हार कर टूटने लगती हूँ,

याद करती हूँ आपको, कैसे आप जीवन की हर बाधा

हँसते हँसते पार कर जाते थे,

'और'

जुट जाती हूँ, इक नए उत्साह के साथ,

जीवन की आप धापी से जूझने के लिए,

अपने बच्चो को, हर ख़ुशी देने के लिए,

अपने सारे दुःख, सारी परेशानी,

बिना उन्हें जताए....

आप भी तो यही करते थे न पापा....

साथ

उन दिनों जब सबसे ज्यादा जरूरत थी मुझे तुम्हारी तुमने ये कहते हुए हाथ छोड़ दिया कि तुम एक कुशल तैराक हो डूबना तुम्हारी फितरत में नहीं, का...