
कभी कभी 'मन'
बड़ा व्याकुल हो जाता है,
संशय के बादल, घने
और घने हो जाते हैं,
समझ में नहीं आता,
स्त्री होने का दंभ भरूँ,
'या' अफ़सोस करूँ...
कितना अच्छा हो,
अपने सारे एहसास,
अपने अंतस में समेट लूँ,
और पलकों की कोरों से,
एक आँसूं भी न बहने पाए....
यही तो है,'एक'
स्त्री की गरिमा,
'या शायद'
उसके, महान होने का
खामियाजा भी...
क्यूँ एक पुरुष में
स्त्रियोचित गुण आ जाये,
तो वो ऋषितुल्य हो जाता है,
'वहीँ'
एक स्त्री में पुरुषोचित
गुण आ जाये तो 'वो'
'कुलटा'
विचारों की तीव्रता से,
मस्तिस्क झनझना उठता है,
दिल बैठने लगता है,
डर लगता है
ये भीतर का 'कोलाहाल'
कहीं बाहर न आ जाये,
और मैं भी न कहलाऊं
'कुलटा'
!!अनु!!
अब तो हम कुलटा कहलाने से भी नहीं डरती... क्योंकि हम औरतें इन सबके पीछे की राजनीति समझ गयी हैं... अब तो कुलटा कहलवाना सर का ताज लगता है...
ReplyDeleteबहुत तीखी और सशक्त कविता... बधाई हो अनुराधा जी... जवाब नहीं आपका...
मैं एक कुलटा...
आपकी कविता की पात्र
अति सुंदर टिप्पणी
DeleteBahut hi Sunder......Tarif ke Shabad nahi mere pass
ReplyDeleteस्त्रियोचित गुण कौन-कौन से हैं जिन्हें पाकर कोई पुरुष ऋषितुल्य हो जाता है?
ReplyDeleteकौन से पुरुषोचित गुण एक स्त्री को कुलटा बना देते हैं?
मैं ऐसे ‘गुण’ पहचान नहीं पा रहा।
स्त्रियोचित = जो स्त्री के लिए उचित हो
पुरुषोचित = जो पुरुष के लिए उचित हो
इस ‘उचित’ की परिभाषा क्या है?
ये भीतर के कोलाहल को कब तक छुपाया जा सकता है ..........
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिखा