Sunday 8 April 2012

अतीत


'लडकियां'
जिनका एक माजी होता,
स्याह अतीत होता है,
जब बैठती हैं, 'ब्याह' की वेदी पर,
झोंक देना चाहती हैं,
अपने अतीत की सारी कालिख,
उस ब्याह की अग्नि में,
'पर'
कहाँ हो पता है ऐसा,
वक़्त मन के घाव तो भर सकता है,
पर नासूर नहीं, वो तो रिसते रहते हैं,
'हमेशा'


"जैसे रेंगते रहते हों,
असंख्य कीड़े,
देह पर,
आत्मा
की गन्दगी,
नहीं छूटती,
सैकड़ों बार नहा कर भी"

पीड़ा का अथाह सागर समेटे,
बन जाती हैं दुल्हन,
समाज की खातिर,
परिवार की खातिर,
कोई नहीं देखता,
उसकी लहुलुहान आत्मा,

जब भी अतीत भूलकर,
वर्तमान में जीने लगती है,
हंसती है, खिलखिलाती है,
वक़्त मारता है,
एक जोर का चांटा,
उसके मुंह पर,
"बेशरम कहीं की"
ऐसे हादसों के बाद भी,
कोई खुलकर हँसता है भला,

कोई याद दिलाता है अक्सर,
यूँ प्यार जताना,
शिकवे-शिकायत करना,
अपने मन के भाव जताना,
'तुम्हे' शोभा नहीं देता,

एहसान मानो मेरा,
स्वीकार किया है तुम्हे,
तुम्हारी आत्मा के हर घाव के साथ,
'वो'
समेट लेती है, मन के घाव मन में,
जीती है जिंदगी, घुट -घुट कर,

क्या सच में नहीं होता,
यूँ घुट - घुट कर ताउम्र जीने से अच्छा,
एक बार का मर जाना... !!अनु!!




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