Friday, 18 May 2012

कभी - कभी



कभी - कभी,
नाहक ही,
तुम्हारी सोच की फसल,
लहलहा उठती है 'मन में',
जाने क्यूँ होता है ऐसा,
मैं तो तुम्हे याद भी नहीं करती....
'हाँ'कभी कभी कोई ख़ास व्यंजन बनाते वक़्त,
 ये ख्याल जरुर आता है,
 क्या ये आज भी तुम्हारी पसंद में शामिल होगा?
मौसम के साथ मिजाज जो बदल जाते हैं,
और फिर अरसा हो भी तो गया...
जब कभी बाज़ार में, दिख जाते हैं,
तुम्हारे पसंदीदा रंग के कपडे,
'या फिर'
अनायास ही, परफयूम की जानी पहचानी सी खुशबू,
 तैर जाती है हवाओं में, 'तब' ख्याल आता है तुम्हारा....
हाथों में रचती हुई मेहँदी के साथ,
जिनमे तुम, अपना नाम ढूंढते थे,
कभी - कभी,
तुम्हारी यादें भी महक जाती हैं...
लेकिन 'हाँ',
इससे ये साबित नहीं होता, के मैं तुम्हे याद करती हूँ...
घर, बच्चे
कितने सारे काम
इतनी फुर्सत कहाँ,
कि मैं तुम्हे याद करूँ
बस यूँ ही
कभी - कभी,
नाहक ही,
तुम्हारी सोच की फसल,
लहलहा उठती है 'मन में.

!!अनुश्री!!

1 comment:

  1. सीधेसादे लफ्जों में बडी बात कह दी आपने। बधाई।

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