Sunday 21 October 2012

दुर्गा पूजा

आज दुर्गा अस्टमी है, हम लोग हर साल..इसी दिन घुमने जाते.. नवमी को इसलिए नहीं जाते थे, क्यूँ की उस दिन भीड़ बहुत होता था, और सप्तमी को कम भीड़ की वजह से घुमने का मजा नहीं आता था।

ठीक नौ बजे रात में निकलते थे, माँ, पापा, दीदी, भैया, हम और गुड्डू (छोटा भाई), वैसे तो घर में कार नहीं था, लेकिन मेरे पापा, सुपर पापा थे, बिना बताये पहले से बुक करा के रखते थे। और कपडा, 'हाँ' कपडा तो दू गो चाहिए होता था, एक गो में काम कहाँ चलता। जो कपडा पहिन के दुर्गा पूजा देखते थे, उसी को पहन के दशहरा, कभी नहीं। अईसा तो होईए नहीं सकता था। कोई सहेली या कोई जान पहचान का दुनो दिन मिल गया तो, केतना बेइज्जती हो जाता। आराम से रात में निकलते, धुर्वा, डोरंडा, और नामकुम घूम कर फिर रांची का देखते थे। फिर आखिर में खा - पी कर घर। (उस दिन घर में रात का खाना नहीं बनता था)
आज उ दिन भी नहीं है, पापा भी नहीं है, और न ही पूजा में घुमने का पहले जैसा जोश। सब कुछ बदल गया।

(कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन)

1 comment:

  1. बढिया संस्मरण
    सच तो यही है कि हम सब चाहते हैं
    कोई लौटा दे मेरे...

    ReplyDelete

साथ

उन दिनों जब सबसे ज्यादा जरूरत थी मुझे तुम्हारी तुमने ये कहते हुए हाथ छोड़ दिया कि तुम एक कुशल तैराक हो डूबना तुम्हारी फितरत में नहीं, का...