Friday, 31 October 2014
प्रेमिका
मुझमे,
नहीं है,
इक अदद
प्रेमिका के गुण,
नहीं आता मुझे,
प्रेम निभाने का शऊर,
'तुम्हारे'
सवालों के जवाब में,
ओढ़ लेती हूँ,
'एक'
गहन चुप्पी,
नहीं जान पाती,
तुम्हारी
आँखों के,
अनकहे अनुबन्ध,
तुम्हें ले कर,
स्वतः ही गढ़ लेती हूँ,
हज़ारों कहानियाँ,
कभी बता नहीं पायी तुम्हें,
मुझे भी पसन्द है,
तुम्हारे साथ,
आकाश के तारे गिनना,
नदी की धारा के,
संग संग बहना,
'हाँ',
तुम्हारी धड़कनों पर
लिखी इबारत,
नहीं पढ़ पाती मैं,
नहीं समझ पाती,
'कब' 'क्या'
कहना चाहते हो तुम,
'शायद'
मुझमे,
नहीं है,
इक अदद
प्रेमिका के गुण.. !!अनुश्री!!
Saturday, 20 September 2014
चाँद
चाँद,
'तुम' यूँ मुस्कुराते हुए,
जब रात की देहरी पर
लिख देते हो 'प्रेम'
मैं मोहित हो जाती हूँ,
भूल जाती हूँ
अपनी 'परिधि'
तुम हो जाते हो 'सर्वस्व',
लेकिन तुम्हे चाह लेना
ही तो 'जिंदगी' नहीं न,
तुम 'आकर्षण' हो,
'दुनिया' नहीं न,
'सुनो'
तुम बार - बार
मत लिखा करो
'प्रेम'
!!अनुश्री!!
'तुम' यूँ मुस्कुराते हुए,
जब रात की देहरी पर
लिख देते हो 'प्रेम'
मैं मोहित हो जाती हूँ,
भूल जाती हूँ
अपनी 'परिधि'
तुम हो जाते हो 'सर्वस्व',
लेकिन तुम्हे चाह लेना
ही तो 'जिंदगी' नहीं न,
तुम 'आकर्षण' हो,
'दुनिया' नहीं न,
'सुनो'
तुम बार - बार
मत लिखा करो
'प्रेम'
!!अनुश्री!!
Monday, 15 September 2014
सुख दुःख,
दुनिया रस्ता टेढ़ा मेढ़ा, जीवन बहता पानी है,
मंजिल पर पंहुचा है वो, जिसने हार न मानी है,
सुख दुःख, दुःख सुख की बातों पर, देखो दुनिया है मौन धरे,
जीवन में गर दुःख न हो तो, ख़ुशी की इज्जत कौन करे,
हर घर और आँगन की, यही एक कहानी है।
मंजिल पर पंहुचा है वो, जिसने हार न मानी है,
गर स्त्री बन आयी हो तो, इसका तुम अभिमान करो,
कुछ भूलो तो भूलो लेकिन, इतना हरदम ध्यान करो,
रानी लक्ष्मी बाई की गाथा, रखना याद जुबानी है।
मंजिल पर पंहुचा है वो, जिसने हार न मानी है,
बाधाओं से डर कर रुकना, है जीवन का नाम नहीं,
तूफानों के आगे झुकना, इंसां तेरा काम नहीं,
हर मुश्किल को पार करे वो, क़दमों में जिसके रवानी है।
मंजिल पर पंहुचा है वो, जिसने हार न मानी है,
गंगा
गंगा तेरी बहती धारा
जाने कितनो का तू सहारा
तू जीवन,तू मोक्षदायिनी,
तू निर्मल, तू पतितपावनी
जीवन तो है चलते जाना
जीवन का है तू ही किनारा
गंगा तेरी बहती धारा
तेरी छत्रछाया में बहते
जाने कितने जीवन पलते
तू रोजी रोटी कितनो की
कितनों का संसार सारा
गंगा तेरी बहती धारा
तेरे जल ने जो घुल जाये
उसका मन पावन हो जाये
तू ही मन के मेल मिटाती
तुझसे ही उद्धार हमारा ||
गंगा तेरी बहती धारा
जाने कितनो का तू सहारा
तू जीवन,तू मोक्षदायिनी,
तू निर्मल, तू पतितपावनी
जीवन तो है चलते जाना
जीवन का है तू ही किनारा
गंगा तेरी बहती धारा
तेरी छत्रछाया में बहते
जाने कितने जीवन पलते
तू रोजी रोटी कितनो की
कितनों का संसार सारा
गंगा तेरी बहती धारा
तेरे जल ने जो घुल जाये
उसका मन पावन हो जाये
तू ही मन के मेल मिटाती
तुझसे ही उद्धार हमारा ||
गंगा तेरी बहती धारा
Friday, 1 August 2014
'प्रेम' 'संवेदना'
एक दिन
बो दी थी
संवेदना 'तुम्हारे'
नाम के साथ,
और
पनप उठा था प्रेम,
खिले थे फूल,
महक रही थी हवाएँ,
वो मादक हँसी लहरों की,
बरसे थे बादल
भींगा था 'मन'
इस पौधे को
साल -दर -साल
बढ़ने के लिए
चाहिए था,
तुम्हारा 'प्रेम'
तुम्हारा 'साथ'
तुम्हारी 'संवेदना'
इतना तो जानते हो न
कोई भी पौधा
बिना खाद पानी के
मुरझा जाता है,
कदाचित
इसकी किस्मत में
भी यही लिखा था,
मुरझा गया 'प्रेम'
सूख गयी 'संवेदना'
बचा रह गया 'ठूँठ'
'अब'
मुझमें नहीं पनपता 'प्रेम'
नहीं जन्मती 'संवेदना' !!अनुश्री!!
बो दी थी
संवेदना 'तुम्हारे'
नाम के साथ,
और
पनप उठा था प्रेम,
खिले थे फूल,
महक रही थी हवाएँ,
वो मादक हँसी लहरों की,
बरसे थे बादल
भींगा था 'मन'
इस पौधे को
साल -दर -साल
बढ़ने के लिए
चाहिए था,
तुम्हारा 'प्रेम'
तुम्हारा 'साथ'
तुम्हारी 'संवेदना'
इतना तो जानते हो न
कोई भी पौधा
बिना खाद पानी के
मुरझा जाता है,
कदाचित
इसकी किस्मत में
भी यही लिखा था,
मुरझा गया 'प्रेम'
सूख गयी 'संवेदना'
बचा रह गया 'ठूँठ'
'अब'
मुझमें नहीं पनपता 'प्रेम'
नहीं जन्मती 'संवेदना' !!अनुश्री!!
Sunday, 11 May 2014
"माँ"
"माँ"
'कैसी हो तुम?'
'उम्मीद है, अच्छी होगी।'
यही दो - चार जुमले,
जो हर ख़त में लिखती हूँ मैं,
ये जानते हुए भी 'माँ'
कि अब 'तुम्हारा' शरीर
तुम्हारा साथ नहीं देता,
उम्र जो हो चली है,
जर्जर होती देह के साथ,
मन भी टूटता जा रहा,
और फिर
'पापा' भी तो नहीं हैं,
एक औरत के लिए,
इससे बड़ा घाव
कहाँ होता है 'कोई',
जानती हूँ,
रोती होगी, हर रात,
तकिये में मूँह छिपा कर,
भुगतती होगी,
अपना अकेलापन,
भरे पुरे परिवार
के बीच भी,
हर बार की तरह,
इस बार भी पड़ी होगी,
भीषण ठण्ड, 'पर',
ये ठंडी हवाएं भी,
नहीं सुखा पायी होंगी,
'तुम्हारी' आँखों का गीलापन,
'शॉल' हाथों में लिए,
इंतजार करती होगी,
कोई कहे 'तो,
'शॉल ओढ़ लो,
कान ढँक लो,
वर्ना ठण्ड लग जायेगी !!'
'और' रो पड़ती होगी,
ज़ार जार,
सब जानती हूँ मैं 'माँ',
लेकिन नहीं चाहती,
कि तुम्हारे जख्म कुरेद कर,
तुम्हे दुःख पहुँचाऊँ,
पल - पल 'तुम्हे'
तुम्हारी कमजोरी,
तुम्हारे अकेलेपन का
एहसास कराऊँ,
इसलिए माँ,
'सिर्फ' इसलिए,
अपने हर ख़त में
लिखती हूँ 'मैं',
"कैसी हो माँ ?
उम्मीद है, अच्छी होगी। "
!!अनुश्री!!
'कैसी हो तुम?'
'उम्मीद है, अच्छी होगी।'
यही दो - चार जुमले,
जो हर ख़त में लिखती हूँ मैं,
ये जानते हुए भी 'माँ'
कि अब 'तुम्हारा' शरीर
तुम्हारा साथ नहीं देता,
उम्र जो हो चली है,
जर्जर होती देह के साथ,
मन भी टूटता जा रहा,
और फिर
'पापा' भी तो नहीं हैं,
एक औरत के लिए,
इससे बड़ा घाव
कहाँ होता है 'कोई',
जानती हूँ,
रोती होगी, हर रात,
तकिये में मूँह छिपा कर,
भुगतती होगी,
अपना अकेलापन,
भरे पुरे परिवार
के बीच भी,
हर बार की तरह,
इस बार भी पड़ी होगी,
भीषण ठण्ड, 'पर',
ये ठंडी हवाएं भी,
नहीं सुखा पायी होंगी,
'तुम्हारी' आँखों का गीलापन,
'शॉल' हाथों में लिए,
इंतजार करती होगी,
कोई कहे 'तो,
'शॉल ओढ़ लो,
कान ढँक लो,
वर्ना ठण्ड लग जायेगी !!'
'और' रो पड़ती होगी,
ज़ार जार,
सब जानती हूँ मैं 'माँ',
लेकिन नहीं चाहती,
कि तुम्हारे जख्म कुरेद कर,
तुम्हे दुःख पहुँचाऊँ,
पल - पल 'तुम्हे'
तुम्हारी कमजोरी,
तुम्हारे अकेलेपन का
एहसास कराऊँ,
इसलिए माँ,
'सिर्फ' इसलिए,
अपने हर ख़त में
लिखती हूँ 'मैं',
"कैसी हो माँ ?
उम्मीद है, अच्छी होगी। "
!!अनुश्री!!
Thursday, 24 April 2014
'प्रेम'
'प्रेम'
कैसे मान लूँ,
तुम्हे
प्रेम नहीं था मुझसे,
तुम्ही ने तो कहा था,
'तुम इतनी प्यारी हो
कि तुम पर
प्यार के सिवा
कुछ आता ही नहीं',
'प्रेम मेरे'
कहाँ से सीखा तुमने,
मौसम के साथ
बदल जाने का हुनर,
कभी पहाड़ के
उसी टीले पर,
महसूस करना
हवाओं को,
आज भी
हमारे प्यार की
सौंधी ही खुशबू
उड़ती हैं वहाँ,
तुम्हारी
खिलखिलाती हँसी,
रूठना, मानना,
और एक दूसरे को
पा लेने की ख़ुशी,
'सुनो'
वहाँ थोड़े आँसूं भी होंगे,
हमारी आखिरी मुलाकात
पर छलके आँसूं ,
उन्हें छेड़ना भी मत,
दिल की जमीन को,
थोड़ी नमी की
जरुरत होती है,
ताकि
दिलों में यादें
पनपती रहें !!अनुश्री!!
कैसे मान लूँ,
तुम्हे
प्रेम नहीं था मुझसे,
तुम्ही ने तो कहा था,
'तुम इतनी प्यारी हो
कि तुम पर
प्यार के सिवा
कुछ आता ही नहीं',
'प्रेम मेरे'
कहाँ से सीखा तुमने,
मौसम के साथ
बदल जाने का हुनर,
कभी पहाड़ के
उसी टीले पर,
महसूस करना
हवाओं को,
आज भी
हमारे प्यार की
सौंधी ही खुशबू
उड़ती हैं वहाँ,
तुम्हारी
खिलखिलाती हँसी,
रूठना, मानना,
और एक दूसरे को
पा लेने की ख़ुशी,
'सुनो'
वहाँ थोड़े आँसूं भी होंगे,
हमारी आखिरी मुलाकात
पर छलके आँसूं ,
उन्हें छेड़ना भी मत,
दिल की जमीन को,
थोड़ी नमी की
जरुरत होती है,
ताकि
दिलों में यादें
पनपती रहें !!अनुश्री!!
Sunday, 20 April 2014
'प्रेम'
'प्रेम'
तुम्हे बार बार
लिख पाना,
सरल नहीं होता,
फिर फिर
जीना पड़ता है 'प्रेम',
भोगनी होती है
पीड़ा,
चाँद को बनाना
पड़ता है,
रतजगे का साथी,
बुनने होते हैं,
कई सारे सपने,
और फिर सहना
पड़ता है,
उनके
टूट जाने का दंश,
'नहीं'
तुम्हे बार बार
लिख पाना,
सरल नहीं होता। !!अनुश्री!!
तुम्हे बार बार
लिख पाना,
सरल नहीं होता,
फिर फिर
जीना पड़ता है 'प्रेम',
भोगनी होती है
पीड़ा,
चाँद को बनाना
पड़ता है,
रतजगे का साथी,
बुनने होते हैं,
कई सारे सपने,
और फिर सहना
पड़ता है,
उनके
टूट जाने का दंश,
'नहीं'
तुम्हे बार बार
लिख पाना,
सरल नहीं होता। !!अनुश्री!!
Wednesday, 19 March 2014
नेता
बीवी बोली नेता से, ए जी जरा सुनते हो, हमरी भी बात पे गौर जरा कीजिये,
बहुत ही दिन हुआ, कहीं हम घूमे नहीं, अबकि हमको गोआ घुमा दीजिये,
नेता बोले, बीवी जी एक बात कहते हैं, कुछ दिन अपना मुँह बंद कीजिये,
गोआ क्या चीज़ है, लंदन घुमायेंगे हम, एक बार हमको जीत जाने दीजिये !!अनु !!
मौसम है चुनाव का, पार्टियों के नेता भी, अपनी अपनी चालों की गोटियाँ हैं फेंक रहे,
कोई हाथ जोड़े खड़ा, कोई पैरों पे है पड़ा, तरक्की और विकास के वादे भी अनेक रहे,
कहीं जातिवाद को रगड़ा, कहीं धर्म का है झगड़ा, वोटों को बटोरने के तरीके सबके एक रहे,
सियासी ये भेड़िये, दंगों की आंच पर, अपनी अपनी राजनितिक रोटियाँ हैं सेंक रहे। !!अनु!!
बहुत ही दिन हुआ, कहीं हम घूमे नहीं, अबकि हमको गोआ घुमा दीजिये,
नेता बोले, बीवी जी एक बात कहते हैं, कुछ दिन अपना मुँह बंद कीजिये,
गोआ क्या चीज़ है, लंदन घुमायेंगे हम, एक बार हमको जीत जाने दीजिये !!अनु !!
मौसम है चुनाव का, पार्टियों के नेता भी, अपनी अपनी चालों की गोटियाँ हैं फेंक रहे,
कोई हाथ जोड़े खड़ा, कोई पैरों पे है पड़ा, तरक्की और विकास के वादे भी अनेक रहे,
कहीं जातिवाद को रगड़ा, कहीं धर्म का है झगड़ा, वोटों को बटोरने के तरीके सबके एक रहे,
सियासी ये भेड़िये, दंगों की आंच पर, अपनी अपनी राजनितिक रोटियाँ हैं सेंक रहे। !!अनु!!
Saturday, 15 March 2014
होली है !!
बुरा न मानो होली है !!
नेह से श्रृंगार कर आया जो फागुन तो, खुशियों की वेणी से द्वार सजने लगे,
पुलकित हुआ मन झूम उठा अंग अंग, अधम, कपट और द्वेष तजने लगे,
उठी जो मनोहर प्रेम की तरंग तो, मन की वीणा के सितार बजने लगे,
चढ़ा जो असर तो शहर के बूढ़े भी, राम नाम छोड़ कर प्रेम भजने लगे !!अनुश्री!!
आ गुलाल कोई मले, या मुझे रँग लगाय,
जो पी के रँग मैं रँगू , मन फागुन हो जाय !!अनुश्री!!
नेह से श्रृंगार कर आया जो फागुन तो, खुशियों की वेणी से द्वार सजने लगे,
पुलकित हुआ मन झूम उठा अंग अंग, अधम, कपट और द्वेष तजने लगे,
उठी जो मनोहर प्रेम की तरंग तो, मन की वीणा के सितार बजने लगे,
चढ़ा जो असर तो शहर के बूढ़े भी, राम नाम छोड़ कर प्रेम भजने लगे !!अनुश्री!!
आ गुलाल कोई मले, या मुझे रँग लगाय,
जो पी के रँग मैं रँगू , मन फागुन हो जाय !!अनुश्री!!
Wednesday, 12 March 2014
'चाँद'
'चाँद'
तुम चाहो या न चाहो,
गाहे - बगाहे तुम्हे
पा लेने की आस,
उग ही जाती है
'मन में'
पूरे हौसले और
जीत जाने के
जज्बे के साथ,
भर्ती हूँ उड़ान,
'तुम तक'
पहुँचती तो हूँ,
लेकिन उसके पहले ही,
ये अमावस
तुम्हे अपने अंक में समेट
छुपा लेता है,
और मेरे हिस्से
लिख देता है
'इंतजार'
'चाँद'
तुम्हें पा लेने की
ख्वाइश,
नहीं तोड़ती दम,
उम्मीदों के बेल,
मुरझा तो जाते हैं,
पर सूखते नहीं,
इन्हे फिर से
दूंगी, थोडा हौसला,
थोडा जज्बा,
और
तैयार हो जाउंगी,
भरने को,
'इक नयी उड़ान। !!अनु!!
तुम चाहो या न चाहो,
गाहे - बगाहे तुम्हे
पा लेने की आस,
उग ही जाती है
'मन में'
पूरे हौसले और
जीत जाने के
जज्बे के साथ,
भर्ती हूँ उड़ान,
'तुम तक'
पहुँचती तो हूँ,
लेकिन उसके पहले ही,
ये अमावस
तुम्हे अपने अंक में समेट
छुपा लेता है,
और मेरे हिस्से
लिख देता है
'इंतजार'
'चाँद'
तुम्हें पा लेने की
ख्वाइश,
नहीं तोड़ती दम,
उम्मीदों के बेल,
मुरझा तो जाते हैं,
पर सूखते नहीं,
इन्हे फिर से
दूंगी, थोडा हौसला,
थोडा जज्बा,
और
तैयार हो जाउंगी,
भरने को,
'इक नयी उड़ान। !!अनु!!
Tuesday, 11 March 2014
'प्रेम'
'प्रेम'
तुम्हारे यूँ विदा कह देने
भर से ही,
विदा नही हो जाती 'साँसे'
विदा नही होती 'यादें'
विदा नही होते हैं वो 'लम्हे'
जो हमने साथ गुज़ारे
'और' न ही विदा होते हैं
वो 'एहसास'
जो अब मेरा वजूद बन चुके हैं,
'तुम'
मेरी पूरी कायनात,
'मेरा' रचा बसा संसार,
तुम्हे आभास भी हैं,
तुम्हारे विदा कह देने से,
थम जाता है सफ़र,
रुक जाती है धड़कन,
'प्रेम'
तुम्हे 'तुमसे'
खुद के लिए माँग लूँ?
बुरा तो नहीं मानोगे न ..
तुम्हारी ही 'मैं' .........
तुम्हारे यूँ विदा कह देने
भर से ही,
विदा नही हो जाती 'साँसे'
विदा नही होती 'यादें'
विदा नही होते हैं वो 'लम्हे'
जो हमने साथ गुज़ारे
'और' न ही विदा होते हैं
वो 'एहसास'
जो अब मेरा वजूद बन चुके हैं,
'तुम'
मेरी पूरी कायनात,
'मेरा' रचा बसा संसार,
तुम्हे आभास भी हैं,
तुम्हारे विदा कह देने से,
थम जाता है सफ़र,
रुक जाती है धड़कन,
'प्रेम'
तुम्हे 'तुमसे'
खुद के लिए माँग लूँ?
बुरा तो नहीं मानोगे न ..
तुम्हारी ही 'मैं' .........
Monday, 3 March 2014
दोहे
ये जग अम्बर और धरा, सब जाती मैं जीत,
गर मेरे मन आ बसै, वो मेरे मनमीत !!अनु!!
लाख छुपाऊँ छुपै नहीं, ये हिरदय की पीर,
पलकों की जद तोड़ के, बह जाता है नीर !!अनु!!
रंग-अबीर-गुलाल सब लाख लगावै कोय.
जब मोरे सजना रँगैं तबहीं होरी होय ।
नहीं नफा-नुकसान कुछ,ये ऐसा व्यापार, उसकी होती जीत है, जो दिल जाता हार !!
लोक लाज सब छोड़ी कै, करती हूँ इकरार,
सोना तो बेमोल है, लाख टके का प्यार !!अनु!!
गर मेरे मन आ बसै, वो मेरे मनमीत !!अनु!!
लाख छुपाऊँ छुपै नहीं, ये हिरदय की पीर,
पलकों की जद तोड़ के, बह जाता है नीर !!अनु!!
रंग-अबीर-गुलाल सब लाख लगावै कोय.
जब मोरे सजना रँगैं तबहीं होरी होय ।
नहीं नफा-नुकसान कुछ,ये ऐसा व्यापार, उसकी होती जीत है, जो दिल जाता हार !!
लोक लाज सब छोड़ी कै, करती हूँ इकरार,
सोना तो बेमोल है, लाख टके का प्यार !!अनु!!
Sunday, 16 February 2014
कविता - रसोई से
कविता - रसोई से
'जिंदगी'
तू क्यूँ नहीं हो जाती,
उस बासी रोटी के समान,
जिसे तवे पर रख,
दोनों तरफ से घी चुपड़,
छिड़क कर थोड़ा सा नमक,
तैयार कर लेती,
कुरकुरी और चटपटी
सी 'जिंदगी'
या फिर,
उसके छोटे छोटे टुकड़े कर,
छौंक देती कढ़ाही में,
ऊपर से डालती,
दूध और शक्कर,
और जी भर उठाती,
प्रेम और अपनेपन
से सजी,
'जिंदगी' के मजे। .!!अनु!!
'जिंदगी'
तू क्यूँ नहीं हो जाती,
उस बासी रोटी के समान,
जिसे तवे पर रख,
दोनों तरफ से घी चुपड़,
छिड़क कर थोड़ा सा नमक,
तैयार कर लेती,
कुरकुरी और चटपटी
सी 'जिंदगी'
या फिर,
उसके छोटे छोटे टुकड़े कर,
छौंक देती कढ़ाही में,
ऊपर से डालती,
दूध और शक्कर,
और जी भर उठाती,
प्रेम और अपनेपन
से सजी,
'जिंदगी' के मजे। .!!अनु!!
Tuesday, 4 February 2014
बसंत
'लो'
फिर आ गया बसन्त,
प्रेम का उन्माद लिए,
प्रियतम की याद लिए,
'बसन्त' तो मेरे
मन का भी था,
रह गया उम्र के
उसी मोड़ पर,
लौटा ही नहीं,
जिंदगी उस
फफोले की मानिंद है,
जो रिसता है
आहिस्ता आहिस्ता,
बेइंतहां दर्द के साथ,
परन्तु सूखता नहीं,
नहीं खिलता
मेरे चेहरे पर,
सरसों के फूल का
पीला रंग,
पलाश के फूल
हर बार की तरह
इस बार भी
मुझे रिझाने में
नाकामयाब रहे,
तुम्हारी यादों के
चंद आँसूं,
पलकों पर सजा
'कभी कभी'
इतरा लेती हूँ
'मैं भी'
ओ मेरे जीवन के श्रृंगार,
मेरे पहले प्यार,
'तुम' आओ
तो बसंत आये। .!!अनु!!
फिर आ गया बसन्त,
प्रेम का उन्माद लिए,
प्रियतम की याद लिए,
'बसन्त' तो मेरे
मन का भी था,
रह गया उम्र के
उसी मोड़ पर,
लौटा ही नहीं,
जिंदगी उस
फफोले की मानिंद है,
जो रिसता है
आहिस्ता आहिस्ता,
बेइंतहां दर्द के साथ,
परन्तु सूखता नहीं,
नहीं खिलता
मेरे चेहरे पर,
सरसों के फूल का
पीला रंग,
पलाश के फूल
हर बार की तरह
इस बार भी
मुझे रिझाने में
नाकामयाब रहे,
तुम्हारी यादों के
चंद आँसूं,
पलकों पर सजा
'कभी कभी'
इतरा लेती हूँ
'मैं भी'
ओ मेरे जीवन के श्रृंगार,
मेरे पहले प्यार,
'तुम' आओ
तो बसंत आये। .!!अनु!!
Friday, 31 January 2014
ज्वालामुखी
पनपता है 'दिल में',
इक 'जिन्दा' ज्वालामुखी,
भावनाओं का वेग,
पूरे उफ़ान पर,
'फट' पड़ने को आतुर,
जानती हूँ,
फटने से
दरक जायेंगे
'रिश्ते'
टूट जायेंगे,
'बंधन'
और 'नारीत्व'
तोड़ने में नहीं
जोड़ने में है,
रख देती हूँ,
'मुहाने' पर,
झूठी 'आशाओं',
'उम्मीदों'
और 'दिलासाओं'
का पत्थर,
ताकि,
घुट कर रह जाएँ,
'सिसकियाँ'
सूख जाएँ 'आँसूं'
हसरतें तोड़ दे 'दम'
'जिन्दा' ज्वालामुखी
हो जाये,
'सुप्त' 'इसका'
मृतप्राय हो जाना,
नहीं है,
'मेरे बस में' । !!अनु!!
इक 'जिन्दा' ज्वालामुखी,
भावनाओं का वेग,
पूरे उफ़ान पर,
'फट' पड़ने को आतुर,
जानती हूँ,
फटने से
दरक जायेंगे
'रिश्ते'
टूट जायेंगे,
'बंधन'
और 'नारीत्व'
तोड़ने में नहीं
जोड़ने में है,
रख देती हूँ,
'मुहाने' पर,
झूठी 'आशाओं',
'उम्मीदों'
और 'दिलासाओं'
का पत्थर,
ताकि,
घुट कर रह जाएँ,
'सिसकियाँ'
सूख जाएँ 'आँसूं'
हसरतें तोड़ दे 'दम'
'जिन्दा' ज्वालामुखी
हो जाये,
'सुप्त' 'इसका'
मृतप्राय हो जाना,
नहीं है,
'मेरे बस में' । !!अनु!!
Tuesday, 28 January 2014
नहीं 'छलकता'
नहीं 'छलकता',
मेरी आँखों से
खारे जल का
एक भी कतरा,
'माँ ने' घुट्टी में,
पिलाई है,
दर्द को जब्त
करने
की कला,
'दिल' के घाव,
रिसते हैं,
भीतर ही भीतर,
खून का पानी हो जाना,
बदस्तूर जारी है,
ये अब जुल्म पर
उबलता ही नहीं,
ग़म में पलकों से,
बहता भी नहीं,
'जानती हूँ',
नम आँखों के साथ,
होठों पर मुस्कान,
सजाये रखने की कला,
होठों को भींच कर,
चीखों को गले में ही,
घोंट लेने की कला,
आखिर,
माँ ने जो सिखाई है,
दर्द को जब्त
करने
की कला। .!!अनु!!
मेरी आँखों से
खारे जल का
एक भी कतरा,
'माँ ने' घुट्टी में,
पिलाई है,
दर्द को जब्त
करने
की कला,
'दिल' के घाव,
रिसते हैं,
भीतर ही भीतर,
खून का पानी हो जाना,
बदस्तूर जारी है,
ये अब जुल्म पर
उबलता ही नहीं,
ग़म में पलकों से,
बहता भी नहीं,
'जानती हूँ',
नम आँखों के साथ,
होठों पर मुस्कान,
सजाये रखने की कला,
होठों को भींच कर,
चीखों को गले में ही,
घोंट लेने की कला,
आखिर,
माँ ने जो सिखाई है,
दर्द को जब्त
करने
की कला। .!!अनु!!
Tuesday, 14 January 2014
सरस्वती वंदना
हे हंसवाहिनी, हे शारदे माँ,
विद्या का तू उपहार दे माँ,
विद्या का तू उपहार दे माँ,
जीवन पथ पर बढ़ती जाऊँ,
अपनों का विश्वास बनूँ माँ,
अंधियारे को दूर भगा दूँ,
ऐसी तेरी दास बनूँ माँ,
तेरी महिमा जग में गाउँ ,
अधरों को तू उदगार दे माँ,
हे हंसवाहिनी, हे शारदे माँ,
विद्या का तू उपहार दे माँ,
अपनों का विश्वास बनूँ माँ,
अंधियारे को दूर भगा दूँ,
ऐसी तेरी दास बनूँ माँ,
तेरी महिमा जग में गाउँ ,
अधरों को तू उदगार दे माँ,
हे हंसवाहिनी, हे शारदे माँ,
विद्या का तू उपहार दे माँ,
मधु का स्वाद लिए है ज्यो अब,
विष का भी मैं पान करूँ माँ,
फूलों पर जैसे चलती हूँ,
शूलों को भी पार करूँ माँ,
तूफानों में राह बना लूँ,
ज्ञान का तू भण्डार दे माँ ,
हे हंसवाहिनी, हे शारदे माँ,
विद्या का तू उपहार दे माँ..
विष का भी मैं पान करूँ माँ,
फूलों पर जैसे चलती हूँ,
शूलों को भी पार करूँ माँ,
तूफानों में राह बना लूँ,
ज्ञान का तू भण्डार दे माँ ,
हे हंसवाहिनी, हे शारदे माँ,
विद्या का तू उपहार दे माँ..
Monday, 13 January 2014
'मुझ पर'
'मुझ पर'
नहीं लिखी जा सकती,
कोई 'प्रेम'
कविता,
नहीं लिखे जा सकते हैं
गीत,
'मैं' नहीं उतरती,
सुंदरता के मानकों
पर खरी,
जिसमे निहायत ही जरुरी है,
चेहरे पर 'नमक' का होना,
'जरुरी है', आँखों में
शराब की मस्ती,
'और' इससे भी जरुरी है,
'जिस्म' का सांचे में ढला होना,
'मुझ पर तो'
कसी जाती हैं फब्तियां,
लिखा जाता है व्यंग,
जिस्मों को पढ़ती,
उन पर गीत लिखती 'नजरें'
क्यूँ नहीं पढ़ पाती,
आत्मा की चीत्कार,
'उनकी वेदना',
'क्यूँ' तन की सुंदरता
भारी पड़ जाती है,
मन की सुंदरता पर ??? !!अनु!!
नहीं लिखी जा सकती,
कोई 'प्रेम'
कविता,
नहीं लिखे जा सकते हैं
गीत,
'मैं' नहीं उतरती,
सुंदरता के मानकों
पर खरी,
जिसमे निहायत ही जरुरी है,
चेहरे पर 'नमक' का होना,
'जरुरी है', आँखों में
शराब की मस्ती,
'और' इससे भी जरुरी है,
'जिस्म' का सांचे में ढला होना,
'मुझ पर तो'
कसी जाती हैं फब्तियां,
लिखा जाता है व्यंग,
जिस्मों को पढ़ती,
उन पर गीत लिखती 'नजरें'
क्यूँ नहीं पढ़ पाती,
आत्मा की चीत्कार,
'उनकी वेदना',
'क्यूँ' तन की सुंदरता
भारी पड़ जाती है,
मन की सुंदरता पर ??? !!अनु!!
Friday, 3 January 2014
ग़ज़ल
लम्हा लम्हा ये मन यूँ पिघलता रहा,
उसके सीने में दिल बन धड़कता रहा।
उसकी चाहत की खुश्बू हवा बन गयी,
सुबह से शाम तक वो महकता रहा।
तेरे जाने का ये दिल पे आलम रहा,
रात रोती रही दिन सिसकता रहा।
उनके पहलु में देखा किसी और को,
शमा बेदम हुई दिल सुलगता रहा।
मेरी नजरों में वो बस गया इस कदर,
रात भर ख्वाब से वो गुजरता रहा।
उसके सीने में दिल बन धड़कता रहा।
उसकी चाहत की खुश्बू हवा बन गयी,
सुबह से शाम तक वो महकता रहा।
तेरे जाने का ये दिल पे आलम रहा,
रात रोती रही दिन सिसकता रहा।
उनके पहलु में देखा किसी और को,
शमा बेदम हुई दिल सुलगता रहा।
मेरी नजरों में वो बस गया इस कदर,
रात भर ख्वाब से वो गुजरता रहा।
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