'माँ'
पापा के जाने के बाद,
जैसे हो ' बेपेंदी का लोटा'
'जब' जिसने चाहा,
ठोकर मार दिया,
... जरुरत पड़ी तो,
पलकों पर बिठा लिया...
जिसने अपने खून से,
सींचा था इस परिवार को,
उस पर परिवार तोड़ने का,
इलज़ाम लगा दिया....
क्यूँ बदल जाते हैं एहसास,
वक़्त के साथ,
क्यूँ घुल जाती है खुशियाँ,
गम के साथ....
क्यों उसके हिस्से आता है,
ग़मों का समंदर,
जिंदगी के सफ़र में,
जिसका साथी जाता है बिछड़... !!अनु!!
Sunday, 11 September 2011
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साथ
उन दिनों जब सबसे ज्यादा जरूरत थी मुझे तुम्हारी तुमने ये कहते हुए हाथ छोड़ दिया कि तुम एक कुशल तैराक हो डूबना तुम्हारी फितरत में नहीं, का...
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'देह' स्त्री की, जैसे हो, कोई खिलौना, पता नहीं, 'कब' 'किसका' मन मचल पड़े, 'माँ' 'माँ' यही खिलौन...
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'पापा' आपका जाना दे गया इक रिक्तता जीवन में, असहनीय पीड़ा मेरे मन में.. 'माँ' आज भी बातें करती है लोगों से, लेकिन उसकी बातो...
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