इन दिनों,
व्याकुल है, 'प्रेयस'
की 'तृप्ता',
बदहवास सी तलाशती है 'उसे'
क्षितिज के उस पार तक,
आकाशगंगा के विस्तार तक,
स्वयं को घोषित करती है
'अपराधिनी'
'अभिशप्त' वो,
इस विरह वेदना को,
अंगीकार करती है,
सजा के रूप में,
अपने प्रेयस पर कोई
दोषारोपण नहीं करती,
स्वीकारती है,
नियति के लिखे को,
लेकिन 'हाँ',
प्रतीक्षरत रहेंगी 'आँखें,
पल, दिन, साल, सदी तक,
वो जानती है,
'प्रेयस' लौटेगा,
जरूर लौटेगा !!अनुश्री!!
Monday, 4 May 2015
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साथ
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