हाथ थामते वक़्त
थाम लिया था हमने,
एक - दूसरे का
अधूरापन,
पूर्ण हो गयी थी 'मैं',
पूर्ण हो गए थे 'तुम' भी,
तुममें उतर कर,
लौटंना
मुमकिन ही नहीं रहा कभी!!अनुश्री!!
लौटंना
मुमकिन ही नहीं रहा कभी!!अनुश्री!!
उन दिनों जब सबसे ज्यादा जरूरत थी मुझे तुम्हारी तुमने ये कहते हुए हाथ छोड़ दिया कि तुम एक कुशल तैराक हो डूबना तुम्हारी फितरत में नहीं, का...
कोमल भाव
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeleteआभार !
मेरे ब्लॉग पे आपका स्वागत है !
ReplyDeleteबहुत शानदार और सशक्त रचना .
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