Wednesday, 15 July 2015

कविता आँगन से

बहुत मुश्किल होता है
खुद को मसरूफ दिखाना,
ये जताना
कि जाओ
तुम्हें नहीं तो मुझे भी नहीं है
तुम्हारी परवाह,
खारिज करती हूँ
तुम्हारा यादों में होना,
मुश्किल होता है,
बुहारे हुए घर को
फिर बुहारना,
धुले बर्तन ढूंढ - ढूंढ कर
दुबारा धुलना,
याद कर - कर के
काम निकालना,
कि निकल सको 'तुम'
जेहन से बाहर,
हाँ, सच में,
बहुत मुश्किल होता है,
आइना देखते वक़्त
खुद से ही नजरें चुराना,
कहीं नजरों ने नजरों  की
चोरी पकड़ ली, तो?
'तुम' भी न, अजब हो,
जाने कैसे पैठ बना लेते हो,
बंद दरवाजे भीतर भी !!अनुश्री!! 

1 comment:

साथ

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