Sunday 19 July 2015

तुम्हारा 'अक्स

हाँ, यही,
यही तो है,
जो सोचती हूँ मैं  भी,
कहीं कोई नहीं मेरा,
कहीं किसी की नहीं हूँ मैं
रत्ती भर भी नहीं,
व्यर्थ है तलाशना,
वक़्त को बाँधना,
बदल दी है सोच,
खोल दी मुट्ठी,
जिस्मों के रिश्ते
उम्र ले कर आते होंगे,
'मन' नहीं आता,
'परिधि' में बंध कर,
और चाँद तो हमेशा से मेरा है,
मेरे साथ, मेरे पास,
तुम्हारा 'अक्स',
तुम्हें 'खो' देने का एहसास
नहीं होता अब,
कि 'तुम' धड़कन हो,
रूह  हो,
हमेशा ही,
मेरे संग संग   !!अनुश्री!!

1 comment:

  1. बहुत ही विचारणीय कविता ...बहुत ही सुंदर एहसास के साथ सुंदर कविता

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