Tuesday, 25 August 2015

कविता तुम जननी, तुम माँ !!

आसान नही था
उम्र के इस मोड़ पर
कविता लिखने की
शुरुआत करना,
कहाँ कविता की शैशवस्था
और कहाँ उम्र की प्रौढ़ावस्था,
लाज़िमी था, मजाक उड़ने का,
नकार दिए जाने का डर,
कविता ने पढ़ा मुझे,
उसने कहा,
मत लिखो मुझे, 'बस'
टूट जाने दो मन का बाँध,
बह जाने दो भाव की धारा,
उन्हें पहनाती जाओ,
शब्दों की पैरहन,
और यूँ ही बनती गयी कविता,
सच कविता,
तुममें उतर कर मेरे शब्द
बंजारे नहीं रह जाते,
उन्हें ठिकाना मिल जाता है,
वे बच जाते हैं उदण्ड होने से,
नहीं फूटते कहीं भी किसी पर भी,
'कविता' तुम मन के सारे
वेग सहकर समेट लेती हो धारा,
तृप्त कर देती हो आत्मा,
हर लेखन के बाद प्रदान करती हो,
एक नया 'मन', नया 'जीवन' ,
कविता तुम जननी, तुम माँ !!

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