जिन्दगी की रेल
सरपट दौड़ती जा रही है,
वो उचक - उचक कर
खिड़की से निहारती है,
पीछे छूटता बचपन,
घर का आँगन,
यौवन की दहलीज़ का
पहला सावन,
पहले प्यार की खुशबू,
उन दिनों के
मौसम का जादू
जो अक्सर सर चढ़ कर बोलता था।
और भी बहुत कुछ
देखना चाहती थी वो,
अपना आसमान छू
लेने का सपना,
चाँद - सितारों को
मुट्ठी में भर लेने का सपना,
लेकिन रेल की तेज रफ़्तार ने
सब धुंधला कर दिया,
धीरे - धीरे छूट गया सब।
समझने लगी है वो,
ख़ाक हो जाना है उसे
यूँ ही
स्वयं में स्वयं को तलाशते हुए,
जल जाना है
अपनी ही प्यास की आग में
'एक दिन' !!अनुश्री!!
सरपट दौड़ती जा रही है,
वो उचक - उचक कर
खिड़की से निहारती है,
पीछे छूटता बचपन,
घर का आँगन,
यौवन की दहलीज़ का
पहला सावन,
पहले प्यार की खुशबू,
उन दिनों के
मौसम का जादू
जो अक्सर सर चढ़ कर बोलता था।
और भी बहुत कुछ
देखना चाहती थी वो,
अपना आसमान छू
लेने का सपना,
चाँद - सितारों को
मुट्ठी में भर लेने का सपना,
लेकिन रेल की तेज रफ़्तार ने
सब धुंधला कर दिया,
धीरे - धीरे छूट गया सब।
समझने लगी है वो,
ख़ाक हो जाना है उसे
यूँ ही
स्वयं में स्वयं को तलाशते हुए,
जल जाना है
अपनी ही प्यास की आग में
'एक दिन' !!अनुश्री!!
जलना तो सभी को है ... पर इस रेल को रोक कर बचपन से मिलना भी जरूरी है कभी कभी ... भावपूर्ण ...
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