Tuesday 20 August 2013

व्यथा 'उसकी' जो नर है न नारी,

व्यथा
'उसकी'
जो नर है न नारी,
कहावतों के अनुसार,
मिलता है पूर्वजन्म के
श्राप के फलस्वरूप,
ये शापित जीवन,
कितनी विकट परिस्थिति,
न 'स्त्री' समाज में स्वीकार्य,
न ही 'पुरुष' समाज में,
जीवन का कोई ध्येय नहीं,
आँखों में कोई सपना भी नहीं,
दुनिया की इस भीड़ में,
होता कोई अपना भी नहीं,
अपनी दुआवों से लाखों  का
गोद भरने वाले,
रातों को रोते हैं,
अपनी  सूनी गोद देख कर,
चीत्कार उठता है मन,
जब देखा जाता है उन्हें
हिकारत की नजर से,
अपने दर्द, अपने आंसू समेट,
दूसरों की खुशियों का हिस्सा बन,
पी जाते हैं अपनी वेदना,
झूम कर , नाच गा कर,
देते हैं, झोली भर - भर दुवायें,
ज़ार - ज़ार  रोता होगा उनका मन भी,
शहनाइयों की गूँज पर,
बालक के रुदन पर,
दुल्हन के स्वागत पर,
उस पर भी विडम्बना ये,
कि  मृत्यु पश्चात् उनकी शव यात्रा,
खड़े खड़े होती है,
पीटा जाता है उनके शव को,
जूतों से, चप्पलों से,
'ताकि' अगले जन्म,
'वो' मुक्त हों,
ऐसे शापित जीवन से। . !!अनु!!




3 comments:

  1. उनकी व्यथा को लिखा है आपने .. ऐसे अभागे जिनको समाज भी तिरस्कार की नज़रों से देखता है ...

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  2. बहुत सुंदर भाव
    अच्छी रचना

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  3. सुन्दर भाव को अच्छे शब्द दिए हैं .. काला बैक ग्राउंड होने से पढने में असहुलियत है , इसे बदल दें पढने में आसानी होगी ..

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