Wednesday 2 October 2013

आदमी

              ***ग़ज़ल ****
चेहरे पे कई चेहरे लगाता है आदमी,
यूँ अपने गुनाहों को छुपाता है आदमी,

जब ढूँढना हो उसको, खुद ही में ढूँढना,
क्यूँ मंदिरों के फेरे, लगाता है आदमी,

खुद का मकां हो रौशन, इस आरजू में देखो, 
घर पड़ोस का ही , जलाता है आदमी,

सियासत के भेडिये यूँ, जमीं निगल रहे हैं,
दरख्तों को आज छत पर, उगाता है आदमी,

दरिंदगी तो देखो, अपनी हवस की खातिर,
बाजार में बेटी को, बिठाता है आदमी। !!ANU!!


2 comments:

  1. आदमी की फितरत को बाखूबी लिखा है ...

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  2. सही कहा है आपने, वाह

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