Thursday 5 September 2013

मुकद्दर

मुकद्दर में नहीं था,
जीस्त का शादाब हो जाना,
तुम्हे भुलाने की पुरजोर कोशिश
'और' 
हर बार नाकामी मिलना,
तुम्हारी यादों की
कफ़स से निकलना
आसां नहीं, नामुमकिन है, 
अब बस एक ही आरज़ू,
जिन गुजरगाहों से
तुम गुजरो,
हर सिम्त शुआओं का बसेरा हो,
तीरगी तुम्हे छू कर 
भी न जाए,
तुम हमेशा मेरी दुआओं में
शुमार रहोगे,
मेरी नीमबाज़ आँखों में
तुम्हारे ही ख्वाब पलते रहेंगे,
एक अधूरे फ़साने के
पुरे होने का इंतज़ार
ताउम्र रहेगा।  

2 comments:

  1. इश्क इश्क ओर इश्क ... इन राहों पे चलने वालों का ऐसा ही तो हश्र होता है ...

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  2. मन के भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....

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