'प्रेम'
अपनी धुरी पर,
तुम्हारे इर्द गिर्द घुमती
'मैं'
यदा कदा बुन ही लेती हूँ
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भर देती हूँ उनमे
'इन्द्रधनुषी रंग'
फिर माथे पर सजा,
'टिकुली' की तरह,
इतराती फिरती हूँ,
हर रंग का अपना वजूद,
अपना आकर्षण,
'न' 'न' इसमें हकीकत का
काला रंग न मिलाना,
मुझे वो बिलकुल नहीं भाते ... !!अनु!!
वाह ... हकीकत का काला रंग न भरना ...
ReplyDeleteकितनी सहज है ये रचना ... ओर अर्थपूर्ण भी ...