Thursday 3 November 2011

मेरी सहेली


आज रह - रह कर तुम्हारे ख्याल का जेहन में कौंध जाना..
'मेरी सहेली' तुम्हारा बहुत याद आना,

वो हमारी 'तिकड़ी' का मशहूर होना,
इक दूजे से कभी दूर न होना,
वो मेरा डायरी में लिखना कि 'अंजना बहुत स्वार्थी है'
और तुम्हारा पढ़ लेना..
'तब'
कितने सलीके से समझाए थे तुमने,
जिंदगी के 'सही मायने'..
'देखो न' मेरी डायरी के वो पन्ने,
कहीं गुम हो गए हैं...
'याद है'
वो होम साइंस का प्रैक्टिकल,
जब प्लास्टिक के डब्बे में,
गर्म घी डाला था हमने,
उसे पिघलता देख कितना डर गए थे तीनो...
'और फिर'
हंस पड़े थे, अपनी ही नादानी पर,

सोचा नहीं था,
कि हमारा साथ भी छूटेगा कभी,
पर हार गए हम,
'प्रकृति के' उस एक फैसले के आगे,
'अब तो'
रोज़ तारों में ढूंढती हूँ तुम्हे,
लेकिन इक बात कहूँ,
'सच्ची में' बहुत स्वार्थी थी तुम,
वर्ना क्यों जाती, 'अकेले',
हमें यूँ छोड़ कर....

आ जाओ न वापस..
'फिर चली जाना'..
जरा अपनी यादों को धूमील तो पड़ जाने दो..
उन पर वक़्त की धुल तो जम जाने दो...

(मेरी सहेली 'अंजना' को समर्पित)

8 comments:

  1. बहुत ही गहरे एहसास है आपके ...... यादों की पोटली होती ही है बहुत सुहानी. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति.

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  2. Aapka bahut bahut dhanyawaad.. Upendra ji.. aap ka utsahvardhan milta raha to shayad aur acchha likh paun...

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  3. 'सच'
    से रूबरू होने की कला आपसे सिखनी पड़ेगी.
    http://ratnakarart.blogspot.com/

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  4. kya kuhb writing karti hai aap

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  5. बहुत सुंदर भाव .

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  6. अच्‍छे शब्‍द संयोजन के साथ सशक्‍त अभिव्‍यक्ति।

    संजय भास्कर
    आदत....मुस्कुराने की
    http://sanjaybhaskar.blogspot.com

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  7. कोमल एहसास लिये सुन्दर रचना ..!
    मेरे ब्लॉग "जीवन पुष्प " पे आपका हार्दिक स्वागत है !

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