स्वयं को बार-बार
साबित करता प्रेम
साबित नहीं हुआ कभी,
और यकीं की दिवार पर
खड़ा प्रेम,
लड़खड़ाया नहीं कभी,
दूर कहीं नीरो की बाँसुरी
आवाज़ लगाती हुईं,
बेसुध हुआ मन,
बह जाना चाहता है,
उन स्वर लहरियों के साथ ही,
देह जड़ हो गयी है,
किसी पत्थर की मानिंद,
कितना आकर्षक है,
क्लियोपैट्रा के होठों का नीला रंग,
जिन्दगी डूब जाना चाहती है,
उस नीले रंग में,
नीला आसमान, नीली जमीं,
और नीली ही मैं ,
सुनता कौन है,
टूटती जिन्दगी की
खामोश चीखें..... !!अनुश्री!!
Wednesday, 24 February 2016
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साथ
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हाँ,बस सब कुछ हवाले
ReplyDeleteतुम्हारी ख़ामोशी के है
तुम्हारी चुपचाप सी बातें
कानों में गुनगुन सी
गूंजते गूंजते मन कहीं
खो जाता है बार बार
उस मोहक सी छवि में
जो दो बिंदुओं के बीच
जैसे सदा के लिए बस
गई थी हौले हौले
प्यारे से कुछ रंगों
की अनोखी छटा
की जुबान मिश्री
सी कुछ बातें
घोलती रहती है
अद्भुत तुम्हारे प्रेम
का रस, अनंत
अगाध स्मरतियों
की तरह..!!