Monday 9 December 2013

' स्त्री'

' स्त्री'
नहीं निकल पायी कभी,
'देह' के दायरे से बाहर
चाहे वो सलवार कुर्ते में,
शरमाती, सकुचाती सी हो
चाहे, इस सो कॉल्ड
मॉडर्न सोसाइटी की
खुले विचारों वाली,
कुछ  नजरें बेंध ही देती हैं
उनके जिस्म का पोर पोर,
भरी भीड़ में भी.

'कभी देखना'
किसी गश खा कर गिरती हुई
लड़की को,
'देखना'
कैसे टूटते हैं, 'मर्द'
उसकी मदद को,
और टटोलते हैं,
'उसके' जिस्म का 'कोना - कोना' ।

'देखना'
किसी बस या ट्रेन में
भरी भीड़ में चढ़ती हुई
'स्त्री' को,
और ये भी देखना,
'कैसे' अचानक दो हाथ
उसके उभारों पर दबाव बना,
गायब हो जाते हैं.

देखना बगल की  सीट पर बैठे
मुसाफिर के हाथ नींद में कैसे
अपनी महिला सहयात्री के
नितम्बों पर गिरते हैं।

जवान होती लड़कियों को
गले लगा कर
उनके उभारों पर हाथ फेरते
रिश्तेदारों को देखना,

और फिर कहना,
क्या अब भी है 'स्त्री'
देह के दायरे से बाहर। 

6 comments:

  1. कडुवे यथार्थ को सच बेलाग शब्दों में ज्यों क त्यों लिख दिया है आपने ...
    संवेदनशील ...

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  2. ye yatharth hai...jane ye mansikta kab badlegi....achhe-sachche bhav...

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  3. खुबसुरत रचना ....निःशब्द हूँ..

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  4. सचमुच इतने वेवाक और निडरता से घटिया पुरुषवादी यथार्थ को रचना का रूप देना साधुवाद का पात्र है...इसमे आपकी महिलाओ के प्रति पीड़ा की झलक भी मिलती है.!
    कृपया इसे इसी तरह जारी रंखे.!!

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  5. कटु सत्य है इस कलयुग का .....खुदा आप की कलम की आवाज सुने और लापता हो रहे मानवीय गुणों को बचाए ,ऐसी भगवन से प्रार्थना है.....

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