Monday, 25 June 2018

स्त्री के मन की थाह

एक स्त्री के मन की
थाह लेना,
ब्रह्मा के वश में भी नहीं,
तुम तो मात्र मनुष्य हो,
तुमने सोच भी कैसे लिया
कि जिस चक्रव्यूह को
ब्रह्मा भी नहीं भेद सके,
उसे भेदने का सामर्थ्य तुममे होगा,
तुम्हें क्या लगा,
तुम स्नेह और प्रेम का
आवरण ओढ़ कर आओगे
तो उसे अपने छले जाने का एहसास नहीं होगा,
तुम ग़लत हो पुरुष,
एकदम ग़लत,
उसे पता होता है ख़ुद के छले जाने का,
लेकिन वो जिसे प्रेम करती है न,
उसके लिए खुद को बिखेरने में भी
संकोच नहीं करती,
वो छली भी जाती है तो उसकी अपनी मर्ज़ी से,
न कि तुम्हारे चाह लेने से,
उसे पता होता है प्रेम के उस पार पीड़ा है,
गहन अन्धकार है,
फिर भी वो तुम्हारी चंद दिनों की ख़ुशी के लिए
उम्र भर के लिए उस पीड़ा और अन्धकार का वरन करती है,
तुम नहीं समझ सकते,
प्रेम में छले जाने का सुख,
किसी के लिए खुद को
बिखेर देने का सुख,
किसी के नाम की माला फेरते - फेरते
जोगन बन जाने का सुख,
किसी के इश्क़ में फ़ना हो जाने का सुख ..... !!अनुश्री!!

1 comment:

  1. बहुत गहरी ...
    सच है स्त्री नारी भी है और पुरुष भी ... आग और पानी एक साथ है ...
    उसके मन की थाह पाना मुश्किल है ...
    लाजवाब रचना है ...

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