कविता - रसोई से
'जिंदगी'
तू क्यूँ नहीं हो जाती,
उस बासी रोटी के समान,
जिसे तवे पर रख,
दोनों तरफ से घी चुपड़,
छिड़क कर थोड़ा सा नमक,
तैयार कर लेती,
कुरकुरी और चटपटी
सी 'जिंदगी'
या फिर,
उसके छोटे छोटे टुकड़े कर,
छौंक देती कढ़ाही में,
ऊपर से डालती,
दूध और शक्कर,
और जी भर उठाती,
प्रेम और अपनेपन
से सजी,
'जिंदगी' के मजे। .!!अनु!!
'जिंदगी'
तू क्यूँ नहीं हो जाती,
उस बासी रोटी के समान,
जिसे तवे पर रख,
दोनों तरफ से घी चुपड़,
छिड़क कर थोड़ा सा नमक,
तैयार कर लेती,
कुरकुरी और चटपटी
सी 'जिंदगी'
या फिर,
उसके छोटे छोटे टुकड़े कर,
छौंक देती कढ़ाही में,
ऊपर से डालती,
दूध और शक्कर,
और जी भर उठाती,
प्रेम और अपनेपन
से सजी,
'जिंदगी' के मजे। .!!अनु!!