'काश'
कभी ऐसा हो,
दर्द और जज्बात के,
सारी हदों के,
पार जाऊं मैं,
ख़त्म हो जाये जिजीविषा,
'मुक्त हो' इस
स्थूलकाय देह से,
'हल्की हो'
विचरने लगूं,
अपनी ही देह के आस पास,
घूंट भर भर अपमान पीया ,
भुगता है कटाक्ष का दंश,
दूर हो,
इस स्थूल काया से,
आनंदित हो जाऊं मैं..... !!अनु!!
Thursday, 29 March 2012
Wednesday, 28 March 2012
मेरी रांची : कुछ यादें
'यादें, यादें बस यादें रह जाती हैं', ये गीत जैसे हम सबके जीवन से कहीं न कहीं जुडा जरूर हैं.. अपनी ट्रेन रामगढ़ में छोड़ कर बस से रांची के लिए चल पड़ी मैं.. अपोलो हॉस्पिटल के पास उतर कर माँ से मिलने हॉस्पिटल गयी.. माँ को देखते ही लगा की उनके गले लग कर खूब रोऊँ.. फिर लगा की अगर मैं कमजोर पड़ गयी तो उसे कौन सम्हालेगा.. बस, फिर क्या था, मुस्कुराते हुए माँ से मिली.. शाम तक माँ के पास रही.. फिर निकल पड़ी घर के लिए.. जैसे ही 'बरीआतु गर्ल्स स्कूल' पहुंची, जी किया की 'बस', ऑटो वाले से कह ऑटो रुकवा लूँ और दौड़ कर अपनी क्लास में जाऊं , छू कर देखूं उस बेंच को, जिस पर मैं, अंजना और पिंकी बैठा करते थे,.. अंजना की याद आते ही आँखें नम हो गयीं.. ये सब सोचते सोचते, कब 'सैनिक थिएटर' आ गया पता ही नहीं चला.. उस थिएटर से जुडा एक बहुत ही दिलचस्प वाक्या बताऊँ आपको, एक बार हमारी एन सी सी की क्लास जल्दी ख़त्म हो गयी, तो सबने प्लान बनाया की फिल्म देखी जाये... हम सब के सब एन सी सी ड्रेस में थे.. जब हमने थिएटर में एंट्री ली तो किसी ने टिकट नहीं माँगा, बल्कि फिल्म के बीच में , सभी कैडेट्स के लिए, समोसे आये... हमे लगा हमारी सीनिअर ने किया है सब... फिल्म देखने के बाद जब हम सबने उन्हें शुक्रिया कहा, तो उन्होंने कहा कि 'मैंने कुछ नहीं किया'.. न तो मैंने टिकट्स लिए और न ही समोसे के लिए पैसे दिए.. हम सब बहुत हँसे, लेकिन ये बात राज़ ही रह गयी, 'हमे बिना टिकट एंट्री क्यों मिली और समोसे किसने भिजवाए'... एन. सी. सी. कि वर्दी पहनने के बाद एक अलग सा जोश भर जाता था जैसे... 'और रौब'.. हाँ.. 'रौब' भी तो रहता था... कई बार तो ऑटो वाले पैसे भी नहीं मांगते थे, हम भी... कभी कभी ऑटो वाले को पैसे दे देते थे , तो कभी कभी एन सी सी ड्रेस का फायदा उठा कर यूँ ही चल देते थे... कुछ भी हो.. वो पल सुनहरे थे.. बहुत ही हसीन...
Friday, 23 March 2012
शाम

मेरी हर शाम,
उदासी का चोला पहन,
मंडराती है,
मेरे आस पास,
धीरे से कान में,
फुसफुसाती है,
तुम्हारा नाम,
मध्यम सी हंसी,
"जैसे"
माखौल उड़ाती हो मेरा,
'ले', बड़ा गुमान था न तुझे,
बड़े गुरुर से कहा था तुमने,
'यक़ीनन वो आएगा',
'हुह'
ये शाम का धुंधलका,
काली रात ले कर आएगा,
भोर का उजाला नहीं,
'उफ़'
उस एक शाम ने,
मेरी हर शाम उदास कर दी.. !!अनु!!
Thursday, 22 March 2012
माँ
Sunday, 4 March 2012
तुमसे
Saturday, 3 March 2012
तकदीर
हर बार छीन ले जाता है कोई,
मेरी तकदीर, मेरे ही हाथों से,
सुना था, गिर गिर कर उठना,
उठ कर चलना ही जिंदगी है..
यूँ, गिरते उठते,
आत्मा तक लहुलुहान हो गयी है..
क्या नाकामियों की,
कोई तयशुदा अवधि नहीं होती..?? !!अनु!!
मेरी तकदीर, मेरे ही हाथों से,
सुना था, गिर गिर कर उठना,
उठ कर चलना ही जिंदगी है..
यूँ, गिरते उठते,
आत्मा तक लहुलुहान हो गयी है..
क्या नाकामियों की,
कोई तयशुदा अवधि नहीं होती..?? !!अनु!!
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