Thursday 19 August 2021

हरसिंगार

रोज़ देखती हूँ,
हरसिंगार के इन फ़ूलों को,
रात्रि होते ही कैसे खिलखिला पड़ते हैं,
झूम उठते हैं,
शाखों पर,
अपने अन्जाम से अनभिज्ञ,
अपना सर्वस्व वार देते हैं
इक रात पर
इतना सुगम तो नहीं,
किसी पर ख़ुद को निसार करना,

रोज़ देखती हूँ
हरसिंगार के इन फ़ूलों को,
प्रभात की प्रथम बेला के साथ ही,
कैसे छोड़ने लगते हैं
अपने प्रिय का साथ,
जैसे जिजीविषा ही ख़त्म हो गई हो,
रोता तो होगा उनका दिल भी
क्यूँ नहीं सुनाई देता किसी को,
उनका मर्मभेदी स्वर,
उनका करुण क्रंदन,
वो भी जानते हैं शायद
प्रेम पाने का नहीं
देने का नाम है,

रोज़ देखती हूँ
हरसिंगार के इन फ़ूलों को,
अपने प्रिय के लिए
हँसते, खिलखिलाते,
प्रेम लुटाते,
और अंततः
अपने प्रिय के विरह में
मरते .... !!अनुश्री !!

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