'प्रेम'
में होना,
जैसे झील हो जाना,
ऊपर से सब शान्त
और भीतर कोलाहल,
लेकिन मैं 'प्रेम' में हो कर भी
झील नहीं बनती
समेट लेती हूँ ,
अपने मन की तमाम
हलचलों को,
ओढ़ लेती हूँ 'चुप' ,
वो 'चुप्पी' मुझमे रच देती है,
इक नयी 'आकाशगंगा',
और मैं उस 'आकाशगंगा' में
गढ़ लेती हूँ इक नया 'संसार',
इस धरातल से परे,
मेरा अपना धरातल,
मेरी अपनी दुनिया,
जहाँ कोई नहीं होता,
सिवा 'मेरे' और
'मेरे अहसास' के !!अनुश्री!!
Thursday, 28 May 2015
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साथ
उन दिनों जब सबसे ज्यादा जरूरत थी मुझे तुम्हारी तुमने ये कहते हुए हाथ छोड़ दिया कि तुम एक कुशल तैराक हो डूबना तुम्हारी फितरत में नहीं, का...
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आज रह - रह कर तुम्हारे ख्याल का जेहन में कौंध जाना.. 'मेरी सहेली' तुम्हारा बहुत याद आना, वो हमारी 'तिकड़ी' का मशहूर होना, इक ...
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'देह' स्त्री की, जैसे हो, कोई खिलौना, पता नहीं, 'कब' 'किसका' मन मचल पड़े, 'माँ' 'माँ' यही खिलौन...
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जिन दिनों उन्हें पढ़ना चाहिये था, ककहरा, सपने, बचपन उन्हें पढ़ाया जा रहा था, देह, बिस्तर, ग्राहक..... !!अनुश्री!!
प्रेम की पराकाष्ठा यही है ... झील हो जाना ...
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