इन दिनों,
व्याकुल है, 'प्रेयस'
की 'तृप्ता',
बदहवास सी तलाशती है 'उसे'
क्षितिज के उस पार तक,
आकाशगंगा के विस्तार तक,
स्वयं को घोषित करती है
'अपराधिनी'
'अभिशप्त' वो,
इस विरह वेदना को,
अंगीकार करती है,
सजा के रूप में,
अपने प्रेयस पर कोई
दोषारोपण नहीं करती,
स्वीकारती है,
नियति के लिखे को,
लेकिन 'हाँ',
प्रतीक्षरत रहेंगी 'आँखें,
पल, दिन, साल, सदी तक,
वो जानती है,
'प्रेयस' लौटेगा,
जरूर लौटेगा !!अनुश्री!!
Monday, 4 May 2015
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साथ
उन दिनों जब सबसे ज्यादा जरूरत थी मुझे तुम्हारी तुमने ये कहते हुए हाथ छोड़ दिया कि तुम एक कुशल तैराक हो डूबना तुम्हारी फितरत में नहीं, का...
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आज रह - रह कर तुम्हारे ख्याल का जेहन में कौंध जाना.. 'मेरी सहेली' तुम्हारा बहुत याद आना, वो हमारी 'तिकड़ी' का मशहूर होना, इक ...
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'देह' स्त्री की, जैसे हो, कोई खिलौना, पता नहीं, 'कब' 'किसका' मन मचल पड़े, 'माँ' 'माँ' यही खिलौन...
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जिन दिनों उन्हें पढ़ना चाहिये था, ककहरा, सपने, बचपन उन्हें पढ़ाया जा रहा था, देह, बिस्तर, ग्राहक..... !!अनुश्री!!
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